रविवार, जून 26, 2011

प्रेम...


जिसके साथ का अहसास हो, साथ फिर भी साथ है।
यह जग मिले पुरूषार्थ से, और प्रेम तो नि:स्वार्थ है।

प्रेम में यदि काम है तब प्रेम कैसे कहें हम इसको,
प्रेम तो रूह में बसता है, अहसास सिर्फ अहसास है।

हो जाये जब प्रेम, भान यदि न हो पाये उसको,
आंकना और परखना, सब प्रेम का अपमान है।

कुछ पाया कुछ खो दिया, मोह में बस संसार के,
जो बांंट दे अपना जिगर, यह त्याग ही तो प्यार है।

तृप्ति में जब तृष्णा न हों तो प्रेम हो जाता है तृप्त,
बहे संग तृष्णा प्रेम के, कैसे न कहें यह व्यापार है।


  • - कोमल वर्मा

मंगलवार, जून 14, 2011

खामोशियां भी चीखती हैं ......


- कोमल वर्मा

कभी-कभी कुछ लम्हे स्मृति पर ऐसी छाप छोड़ जाते हैं कि गाहे-बगाहे वह याद आ ही जाते हैं या यूं कहें पीछा करते ही रहते हैं फिर या तो इंसान उनमें रम जाता है या उनका साथ छोड़ दुनिया से विदा ले लेता है। ऐसी कितनी ही कमजोर और खामोश परछाइयां हमारे आसपास विचरण करती रहती हैं उनमें से जब भी किसी की आपबीती सामने आती है तो दिल छलनी सा हो जाता है। विश्वास ही नहीं हो पाता कि इतनी तकलीफें उठाकर कोई चल भी कैसे लेता है। आज फिर अखबार के पन्ने पलट रही थी तो फिर वही बलात्कार की खबरें सामने आईं। फिर मन कसैला हो गया और याद आ गई नीरजा। मां से सुना था उसके बारे में। यही कोई चौदह वर्ष की ही तो थी जब उसका बलात्कार हुआ था। दुबली, पतली सांवली सी और बेहद खामोश रहने वाली नीरजा के साथ उसकी ही बस्ती के बीस वर्षीय युवक ने बलात्कार किया था। परिवार के नाम पर केवल मां और हालात के नाम पर हद से ज्यादा गरीबी, तंगहाली...। नीरजा का कसूर उसका लड़की होना था या कुछ और ये तो नहीं बता सकती पर सोच के दायरे यहां सीमित हो जाते हैं। इंसान इस कांक्रीट के जंगल में पशु ही बन गया है जहां न दिल है न दिमाग, भावनाएं और एहसास तो जाने किस गली में मुड़ गए। नीरजा की कोई गलती न थी फिर भी सबकी गलत निगाहें उसके पीछे थीं। जल्द ही यह भी पता लगा कि वह गर्भवती है। मात्र चौदह वर्ष की, हद से ज्यादा गरीब, नीरजा डॉक्टर, दवा, अस्पताल... क्या करती। जिसने उस पर दाग लगाया वो भी खुलेआम किसी और नीरजा को घायल करने के लिए घूम रहा था। नीरजा की मां भी उसके पैदा होने पर अफसोस जताती रहती थी। बेचारी नीरजा समाज और मां के कुठाराघात को कैसे अपने कोमल हृदय पर सहन करती होगी। हम, आप तो इसकी कल्पना मात्र से ही सिहर उठते हैं। उसे तो ये जबरन का दुख झेलना ही था। खैर... नौ माह बाद नीरजा ने एक नन्ही सी प्यारी सी बेटी को जन्म दिया। उस जिले के पुलिसिया अफसरान व हवलदार ईश्वर के दूत ही थे शायद, सारी दवा, अस्पताल का खर्च सब मिलजुलकर उठा लिया। एक ही स्थान पर भिन्न-भिन्न मानसिकता के लोग....। शिक्षा का अंतर होगा शायद........। पर जो भी हो नीरजा पन्द्रह वर्ष की उम्र में मां भी बन गई। बिन ब्याही मां...। कुछ भी हो कहीं न कहीं उसने एक महान और उच्च स्थान प्राप्त कर लिया था। एक नन्हे शरीर का स्पर्श जो उसका अपना अंश था। उसके एहसास का अद्भुद सुख उसे मिल चुका था। ये भी इंसान की एक प्रकृति होती है। वह दुख के दिनों का ज्यादा समय अपने पास नहीं रखना चाहता।  हमेशा उन्हें धक्का मारकर सुख के लिए रास्ते बनाने का प्रयासत्न करता रहता है। मन ही मन नीरजा की बच्ची के लिए आशीर्वाद निकल रहा था। दूसरे दिन ही अस्पताल से खबर आई कि नीरजा ने अपनी बच्ची को गला घोंटकर मार दिया। उफ्फ...। हृदय जैसे मुंह को आ गया। मुझे इतना दर्द इतनी पीड़ा हो रही थी मानो मेरी अपनी बच्ची थी। फिर नीरजा ने ऐसा क्यूं किया...। उसने उसे नौ माह तक अपने गर्भ में पल्लवित किया था। एक जननी भला अपनी ममता को कैसे छलनी कर सकती है। उसका कोमल स्नेहिल एहसास...........। हे ईश्वर वह इतनी निर्मन थी। नीरजा जो शुरू से ही खामोश थी वह मरी बच्ची को खामोशी से देखे जा रही थी। न आंखों में कोई अपराध बोध न हृदय में पश्चाताप। पूछने पर कि उसने ऐसा क्यूं किया तो मासूमियत से बोली मां कह रही थी तेरी लड़की है तू ही संभाल। तो मैंने सोचा मां मुझे न संभाल पाई तो मैं इसे कैसे...। हत्या के मामले में उसे गिरफ्तार कर बाल सुधार गृह भेज दिया गया। इस बात को आज छ: वर्ष हो चुके हैं अब तो वह बालिग होकर सुधार गृह जेल से भी आ चुकी होगी और हत्यारी मां का लेवल चस्पा हो चुका होगा। पर क्या अब भी उसे अपने अपराध का एहसास होगा या फिर उसकी खामोशियां यूं ही चीखती होंगी। हम मानव हैं, विकास चाहते हंै, बुद्धिमान हैं परंतु इतने भी हैवान नहीं कि किसी नाबालिग असहाय के साथ ऐसा व्यवहार करें व ऐसा करने वालों को खुला घूमने दें। कानून ने हमें कई सुविधाएं दी हैं पर उसकी पेचीदा गलियां और दुर्गम रास्ते, पीड़ा को उस द्वार तक पहुंचते ही नहीं देते। औरत के चरित्र को दैहिकता से जोड़े रखने की सामाजिक वजहें बहुत सीधी-साधी नहीं, काफी गहरी और जटिल रही हैं। उनको समझे बगैर इस बात को नहीं समझा जा सकता कि क्यों दैहिक आचरण को ही हमने स्त्री के चरित्र का सबसे बड़ा और कभी-कभी तो एकमात्र पैमाना मान लिया है। शायद इसी मानसिकता के चलते बलात्कार के पर्यायवाची शब्दों में इज्जत, अस्मत जैसे शब्द आते हैं। बलात्कार होने पर इज्जत लुट गई, अस्मत लुट गई, सब कुछ चला गया, किसी को मुँह दिखाने काबिल नहीं रही, आँख मिलाने लायक नहीं रही, मुँह पर कालिख पुत गई वगैरह।
समझ नहीं आता कि जिसने कुछ गलत नहीं किया उसकी इज्जत क्यों गई? उसे शर्म क्यों आई? ठीक है, एक हादसा था। जैसे दुनिया में अन्य हादसे होते हैं और समय के साथ चोट भरती है वैसी ही यह बात होनी चाहिए। मगर नहीं होती। सिर्फ और सिर्फ औरत के लिए ही यौन शुचिता के आग्रह के चलते हम घटना को कलंक बनाकर शिकार के माथे पर सदा-सर्वदा के लिए थोप देते हैं। लेकिन वह खामोश नजरें जब चीखती हंै तो मानवता लहूलुहान हो जाती है।
 भीगे आंचल की बूंदे जब 
आंखो से टप टप बहती है
वो ममता बहुत रूलाती है 
उस पल की याद दिलाती है...

मंगलवार, जून 07, 2011

सब कुछ व्यवस्थित


आदरणीय ब्लॉगर,
यथायोग्य अभिवादन् ।
पिछले कुछ दिनों से मेरा ब्लॉग दीपावली की साफ-सफाई के दौरान हुये घर के जैसा हो गया था? आतिथ्य में भी दिक्कतें हुयी। पर अब सब कुछ व्यवस्थित है। सो ब्लॉग पर आना- जाना लगा रहेगा?
-कनक

साथ की जिद् जुटाए बैठे है



फीकी रही जिनकी तड़प, जहां के लिए,
यादों को उनकी हम आंखों में सजाए बैठे हैं।

कसूर इतना है कि वो समझे न मुस्कुराना मेरा,
या आदत है उनकी, वो खुद को छिपाए बैठे हैं।
         

         अलग है राह मगर, मंजिलों की सोच एक,
         जो जख्म पुराने हम दिल से लगाए बैठे हंै।

         अक्सर यह ही, मन को दर्द देते रहते हैं,
         ऐसे में वो क्यूं साथ की जिद् जुटाए  बैठे है।
         

   जफा के दौर में मुमकिन नहीं वफा उम्मीद कोई,
   कैसे यकीन करुं, वो, जो नजरों में बसाए बैठे है।

   शेर है, ना शायरी ना काफिए का मिलन यह,
  ऐसी ही इक गजल को फिर से आजमाएं बैठे है  ।                 

- कोमल वर्मा

माँ के साथ मेरी वो एक रात....



कोमल वर्मा

अनाथ होकर जीना कैसा लगता है, ये शायद मैं कभी नहीं बता सकती और न इस विरह को झेलना चाहूंगी। सच किसी भी बच्चे के लिए उसके माता-पिता से अलग होना कितना दुखद होता है। कुछ साल हॉस्टल में बिताने हों तो मन इतना अनमना हो जाता है, उस पर उनसे हमेशा की जुदाई तो...। लेकिन तबस्सुम ने अपनी यह वेदना जन्म से झेली है। जन्म से उसने मां के स्थान पर अनाथ आश्रम की आया का स्पर्श पहचाना। उसे नहीं पता था कि मां की लोरियां किसे कहते हैं। सैकड़ों की संख्या में सोयी हुई बच्चियों को कोई लोरी कहां से सुनाएगा भला....। ममता का हर क्षण उसने अकेले रहकर काटा। वह कभी-कभी सोचती थी कि कितनी निर्दयी होगी वो मां जो अपनी नवजात बच्ची को पहला स्पर्श देने के समय उसे अनाथालय छोड़ गई। उसके कोमल मन ने उस मां की एक अमानवीय छवि बना ली थी जो महज नाम की पत्ती देकर उसे भूल गई। चौदह वर्ष की उम्र में उसे एकाएक पता लगा कि अनाथाश्रम में उससे एक महिला मिलने आई है जो समाज की एक उच्च हस्ती है। जब मन टटोला तो वही अनचाहा चेहरा सामने आया। एक सामान्य व्यवहार की तरह तबस्सुम उनसे मिलने चली गई। अनाथ आश्रम की बड़ी दीदी के अनुसार वह एक समाज सेविका थी जो अनाथ आश्रम में चंदा दान करती थी। उसे देख उन्होंने तबस्सुम के साथ एक दिन के लिए रहने की इच्छा जताई। तबस्सुम की तरफ से साफ इनकार था। ममता की प्यासी वो जाना तो चाहती थी लेकिन शायद उसकी चौदह वर्षीय वेदना, अकेलापन उसे न जाने को विवश कर रहा था। फिर भी बिना उसकी मर्जी जाने उसे उनके साथ भेज दिया गया। कुछ समय बाद बड़े चौराहे से छोटी गलियों का सफर तय करके वो उसेे एक अस्पताल में ले गईं जहां बेसुध सोयी एक औरत और पास खड़ी डाक्टर व नर्सों का झुंड था। उसके साथ आई उस औरस ने एकाएक इशारा किया। बेटा ये आखिरी सांसें गिनती औरत तुम्हारी अम्मी है....। शायद ऐसा झटका उसे पहली बार लगा। मां को इस हालत में देख वो पिछली सारी वेदना, छवि भूलकर उनसे लिपट कर रोने लगी। जख्मी हृदय से जैसे आंसुओं के स्थान पर रक्त बह रहा है। मन में सवाल तो थे क्या कारण था... ? क्यूं उसे छोड़ा... पर मां की अन्तिम सांसों में वह उन्हें पाकर खोना नहीं चाहती थी। उस समय तक सब वहां से जा चुके थे। मां ने आंखें खोलीं उसका सारा दुलार उसकी आंखों से बह रहा था। एकाएक बोली... तुझे बहुत गुस्सा आ रहा होगा न कि चौदह वर्ष तक तेरी मां ने तेरी सुध नहीं ली। पर बेटा तेरे जन्म के बाद से मैं कोमा में हूं। तेरे पिता ने मेरे साथ धोखा किया और मुझसे शादी करके किसी और के साथ रहने चले गए। आज तबस्सुम को उसके हर सवाल का जवाब मिल गया था। पर फिर भी वह सुनना नहीं चाह रही थी। उसे मां को चौदह वर्ष तक का प्यार चाहिए था। ढेर सारा प्यार। रात भर मां का आंचल पकड़कर रोती रही। न जाने कब आंख लगी। सुबह उठी तो डाक्टर नर्स सभी मां को ट्रीट कर रहे थे। मां जा चुकी थी उसेे हमेशा-हमेशा के लिए छोड़कर। उस एक रात में उसे पूरी उम्र का लाड़ देकर। शायद अब उनके दिल में बेटी से मिलने का सुख था। पर तबस्सुम मां के साथ अपनी उस एक रात को कभी न भुला पाई। आज वह एक सभ्य परिवार की बहू है और शायद यह उसके संस्कार ही हैं कि सास के रूप में उसे अपार स्नेह करने वाली मां मिली है। पर माँ के दर्द की टीस उसके हृदय में आज भी है।

उनके आने से आई होली...


कोमल वर्मा

प्रेम की अनुभूति किसी भी एहसास से अलग होती है। कोई भी रिश्ता किसी भी कारण से क्यूं न बंधा हो उसका स्नेह आमंत्रण प्रत्येक हृदय को भावुक स्पर्श देता है और जब बात होली की आती है तो प्रेम उन रंगों में मिलकर और भी गहरा हो जाता है। शायर ही ऐसा कोई व्यक्ति हो जो प्रेम के रंगों में सरावोर नहीं होना चाहता है। होली के गीत भी मीत के आगमन की वाट जोहते दिखाई देते हैं। यहां मेरा कालम मुझे कुछ होली के मस्ती भरे वाक्यांश लिखने की उम्मीद करता है। परन्तु में अपनी संवेदनशीलता के समक्ष विवश है। मेरी कलम भी संवेदनाओं को ही उभार दे पाती है। सावित्री की व्यथा इस बात की साक्षी है। कई वर्षों से होली पर अपने पति के आने का इंतजार करती सावित्री को ये तो नहीं पता था कि उसका विवाह कब हुआ परन्तु उसने अपनी सखियों से यह अवश्य सुना था। कि होली के दिन प्रत्येक सुहागन अपने मीत के साथ ही होली खेलती थी। इसी आस में कि वे अब आएंगे, वह हर होली पर दरवाजे की चौखट लांघ के बैठ जाती कि शायद इस बार वे उससे होली खेलने अवश्य आएंगे और हर बार सांझ होते-होते उसका उतरा हुआ चेहरा उसके इंतजार के इतिहास क ा एक पन्ना और भर देता था। अब तो उसकी सारी सखियां भी अपने ससुराल जा चुकी थीं। वस वही अभागिन मायके के आंगन की धूल बनी हुई थी। हर बार होली पर उसका मन यही कहता कि काश...एक बार तो वे आते उन्हें एक बार ठीक से देख तो पाती....। बचपन के गुड्डे-गुड्डियों की शादी की भांति हुए उसके बालविवाह ने अब तक तो उसके पति की छवि भी धूमिल कर दी थी। क्या वह अब उसे पहचान पाएगी? क्या वो अपनी सखियों के कहे अनुसार सही मायनों में सुहागन बन पाएगी। इन्हीं स्मृतियों के साथ उसने अपने जीवन के पचास बसंत पार कर लिए। अब तो होली पर रंगों की चंचल पिचकारियों ने उसे आवाज देना भी बंद कर दिया था। शायद अब उसने इंतजार करना भी छोड़ दिया था और भाभियों के तीक्ष्ण ताने सहने की आदत भी डाल ली थी। हर होली की तरह इस बार उसने आंगन की ओर मुड़कर नहीं देखा और कमरे में बैठी कुछ गुनगुनाती कपड़े सिल रही थी कि तभी बाहर किसी की आवाज सुनायी दी। सारे मोहल्ले में जैसे भगदड़ मच गयी, वह दौड़कर बाहर आयी तो देखा एक व्यक्ति अधमरी हालत में उसकी चौखट पे पड़ा सावित्री सावित्री पुकार रहा था। अनजान व्यक्ति के मुख से अपना नाम सावित्री चौंक तो गयी थी। उसकी हालत देखते हुए सावित्री ने उसे अन्दर चारपाई पर लिटाया। उस व्यक्ति के हाथ लगातार प्रार्थना की मुद्रा में थे जैसे वह अपने किसी अपराध की क्षमायाचना कर रहा हो। दो पल के बाद भीड़ की छंटनी हुई। सावित्री ने पूछने के लिए होंठ हिलाए ही थे कि वह व्यक्ति बरबस ही बोल पड़ा..। ''सावित्री मुझे क्षमा करना मैं सतीश हूं तेरा पति, मैं भटक गया था। मैंने शहर जाकर दूसरा विवाह कर लिया था। परन्तु मैं उस आत्मग्लानि से कभी बाहर नहीं निकाल पाया। हम दोनों में रोज बहस होने लगी। मुझे टीबी हो गयी। मैं अपनी आत्मग्लानि में झुलसता गया। वह भी मुझे तलाक देकर इस हालत में छोड़ गयी। मुझे क्षमा कर दो सावित्री मैं इस काबिल तो नहीं, लेकिन यदि हो सके तो....। सावित्री स्तब्ध अपने किस्मत का नया रुख देख रही थी। उसके नेत्रों से प्रेम की  अविरल धारा फूट पड़ी। शायद आज ईश्वर को उस पर तरस आ गया। इसकी होली पूरी हो गयी। उसने पास पड़े गुलाल से दो मुट्ठी भरकर सतीश के गालों पर लगाया और बोली कुछ मत बोलिए आज ईश्वर ने मेरे इंतजार का कर्ज चुकाया है। मेरे लिए इतना भर काफी है कि आपने मुझे याद रखा। होली के अवसर पर ईश्वर ने उसे उसका सुहाग लौटा दिया था। अब वह  स्वयं में इतना गौरवान्वित हो रही थी उसे लग रहा था कि हर एक को जाकर बताये कि वह भी सुहागन है। उसके साथ उसका पति है।ÓÓपचास वर्ष बाद ही सही अब वह भी हर वर्ष होली मनाएगी।
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दूसरी औरत होने का दुख...


कोमल वर्मा

कुल्टा, करमजली, चालबाज, धोखेबाज, आवारा, दूसरी औरत कहीं की पता था फिर भी फंसा लिया ना...... यही सब बातें सुननी पड़ती है ना दूसरी औरत को। हो सकता है इससे भी ज्यादा। एक व्यक्ति, एक घर, एक बिरादरी ही नहीं बल्कि सारा समाज उसे गालियां देता है लेकिन शायद उसकी तड़प किसी को नहीं दिखाई देती जो ब्याहता न होते हुए भी किसी अन्य के पति के लिए पूरा जीवन समर्पित कर देती है। मेरे कहने का तात्पर्य यह कतई नहीं कि सारी दूसरी औरत अच्छी होती है या हर मर्द दूसरी औरत रखे। जहां तक आंकड़ों का सवाल है दूसरी औरत की परछाईं भी बुरी होती है परन्तु यदि समाज के दायरों के परे ऐसे रिश्ते पनपते हैं तो ये कहां का इंसाफ है कि दोषी केवल एक को ही ठहरा कर उसे हेय दृष्टि से देखा जाए। मेरे पास कौशल्या इसका एक जीता जागता उदाहरण है। बचपन से अच्छे संस्कारों में पली सुशिक्षित सुंदर एवं गुणवान कौशल्या दूसरी औरत होने का एक ऐसा उदाहरण है जो आप सभी को एक बार सोचने पर अवश्य विवश कर देगा। एमए प्रथम वर्ष से ही कौशल्या आत्मनिर्भर हो गई। परिवार को उसके चाल चलन एवं आत्मनिर्भरता को लेकर बड़ा गर्व होता था। स्कूल में पढ़ाने से लेकर घर आने तक का उसका समय निर्धारित था। किसी को उससे कहीं कोई शिकायत नहीं थी। धैर्य और आत्मीयता उसकी पूंजी थी। बात उन दिनों की है जब स्कूल में विद्यार्थियों की बढ़ती संख्या के कारण प्रत्येक कक्षा के दो भाग किए जा रहे थे। स्टाफ रूम में इस बात के चर्चे थे। जल्दि ही शिक्षको की नियुक्ति भी हो गयी। स्टाफ रूम में चार नए शिक्षक नजर आए। शिखर शर्मा किसी ने आवाज लगाई... आपका विषय क्या है? विज्ञान दूसरी ओर से उत्तर आया। नयी भर्ती में  शिखर शर्मा के अजिरिक्त तीन महिलाएं थी। शिखर शर्मा का बात करने का तरीका, उनका देखने का अंदाज सब अलग था। हर किसी से कटने वाली कौशल्या उनकी ओर खिंचने लगी थी। कहते हैं चेहरे के हाव भाव दिल का हाल बयां कर देते हैं। चंद रोज की मुलाकात ने दोनों को एक दूसरे के काफी करीब ला दिया था। परिवार ने भी उसके बदले हालातों को भांप लिया। जिस ओर देखो बस उन्हीं की बातें होने लगी। पारिवार की बदनामी एवं अन्यत्र कीहे विवाह होने की आशंका से डरी कौशल्या ने शिखर से इस मामले में बात की। उसके बाद जो उसे पता लगा उससे तो जैसे कौशल्या के होश उड़ गए। शिखर पहले से विवाहित था। उसके दो बच्चे भी थे। कौशल्या जैसे अपने दर्द के समुंदर में दफन हो गई हो। वह क्या करे? प्रेम इंसान को सम्पूर्ण बनाता है। परन्तु सामाजिक परिधि इस प्रकार के प्रेम को गाली समझती है। परिवार का तिरस्कार, समाज की घृणा, शिखर के घर वालों की लताड़ क्या प्रेम के बदले में वो यह सब सहने के लिए तैयार हो जाए या फिर जहां परिवार कहे वहां शादी करके सुकून की जिन्दगी जिए। क्या वह अपने मिथ्या रिश्ते के  लिए परिवार का प्रेम, भरोसा सब तोड दे और वह स्वंय को स्वार्थी व चरित्रहीन बेटी की कतार मे खड़ा कर दे? शिखर लगातार अपने प्रेम की दुहाई दिए जा रहा था। शायद यह द्वन्द उसके जीवन का पहला द्वन्द था। प्रेम के मोहपाश में बंधी कौशल्या ने स्वयं को शिखर के प्रेम के हवाले कर दिया और परिवार व समाज के खिलाफ दूसरी औरत बनना स्वीकार कर लिया। आप और हम समझ सकते हैं कि इस फैसले पर उसे हर किसी से कितना कुछ सुनने को नहीं मिला होगा। इसके साथ कितना अमानवीय व्यवहार हुआ होगा। उसने शिखर से जुड़े हर रिश्ते को दिल से स्वीकारा पर उसे किसी ने नहीं। शिखर की पत्नी उसके  घरवालो ने उस निर्दोष के साथ सीमा हीन असभ्य व्यवहार किया। उसके एकान्त के अतिरिक्त उसे सुनने वाला कोई नहीं था। धीरे धीरे शिखर भी उससे बिमुख हो गया।   उसके किराए के कमरे पर वह कभी कभार ही आता था। एक दिन एक भयानक स्वप्न की तरह शिखर की एक आकस्मिक दुर्घटना में मृत्यु हो गई  इसका जिम्मेदार भी कौशल्या को ही ठहराया गया। ईश्वर की विडम्बना देखिए शिखर की ब्याहता को उससे सास ससुर ने बच्चों सहित घर से निकाल दिया। यहां तकदीर का खेल कि उसी दूसरी औरत ने जिसे उस घर से अपशब्दो के अतिरिक्त कुछ ना मिला था,उन्हें आश्रय दिया। उनके बच्चों को उच्च शिक्षा दी, संस्कार दिए। समाज इसे स्वीकारे या ना स्वीकारे परन्तु शिखर की पत्नी के लिए अब वो उसकी स्वार्थी सौतन नहीं है। उसके बच्चों ने भी अपने पिता की दूसरी औरत के त्याग, समर्पण को समझा। और अपने ह्रदय सेे उसकी पुरानी बेकार, दूसरी औरत की छवि को धूमिल कर दिया था और उसका स्थान छोटी मां ने ले लिया था। आज भी कौशल्या उस अजीबो गरीब रिश्ते में बंधे परिवार का लालन पालन कर रही है। शायद उसका समर्पण समाज में उसे सर उठाकर चलने का अधिकार दे सके। परन्तु प्रश्न अब भी वही है कि समाज उसे क्या अधिकार देगा.......?
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यादों का संदूक......


कोमल वर्मा

फुरसत के पलों में जब मेरा मन बार बार अतीत के झरोखो से झांकता है तो, फिर से वो कोमल बचपन याद आता है। गर्मी की छु़िट़टयों का बचपन से कुछ ऐसा ही नाता है। दोस्तो के साथ की जाने वाली शरारते, लूडो, कैरम और अन्त्याक्षरी, बर्फ की ठंडी ठंडी चुस्की और ना जाने कितनी खूबसूरत यादें जुडी होती है इस मौसम से। यदि हम अपने गर्मी के दिन याद करें तो तो दिल को एक अलग तरह का सूकून मिलता है। स्नेह और अपनत्व की ठंडी छांव धूप की चिलचिलाती तपिश को भी सुहाना बना देती थी। लेकिन आज जीवनशैली इतनी बदल चुकी है कि तमाम सुख सुविधाओं के बाबजूद आज के बच्चों के पास वो जीवन्त माहीैल नहीं है। जहां वे वेफिक्री से गर्मी की छुिट्टयों का लुफत उठा सकें।
लेकिन रचना की बात बिल्कुल उलट है। बचपन में ही नानी का स्वर्गवास हो जाने के कारण रचना को छुट्टियों के लिए  वो आंगन कम ही  मिल पाया, शायद उसकी माँ को भी इसकी कमी खलती थी।  पांच भाई-बहनो में से चार की शादी हो चुकी हैै। काफी पहले पापा का भी स्वर्गवास हो गया। यूं तो उनके जाने की कोई उम्र ना थी पर ईश्वर के सामने किसकी चलती है। समय के साथ माँ ने भी सब्र कर ही लिया था। आरंभ से ही रचना माँ के सबसे ज्यादा करीब थी। इसलिए बाहर जॉब होने के बाबजूद  दस दिन में एक बार माँ से मिलने आ ही जाती थी। भाभी भी ऐसी न थी कि जिनका साथ माँ को भवनात्मक मजबूती दे सके । जरा जरा सी बात पर माँ से किटकिट करने लगती थी। माँ बस इतना कहती बिटिया सब ठीक है ये सब तो कभी कभी होता है, पर ये तो वो भी अच्छी तरह से जानती थी कि माँ क्या छिपाती है ना फोन पर ना सामने उसने कभी भी इस बात का एहसास ना हाने दिया कि वो कितनी अकेली है। मां जो बच्चों की आहट से ही पहचान लेती है कि कब उसे किस वस्तु की आवश्यकता है, उसे कब भूख लगती है और कब डर...। पर वे बच्चे ही हैं जब तक उन्हें मां के आंचल की जरूरत होती है तब तक पकड़े रहते हैं जैसे ही पंख लगते हैं उड़ जाते हैं मां को छोड़कर बिना ये सोचे कि कभी तो उन्हें भी हमारी जरूरत होगी। रचना सब समझती पर मां की जिद की वजह से वो उन्हें अपने साथ भी तो नहीं ले जा पा रही थी। पता नहीं ऐसा क्या बांधे हुए था उन्हें। बेटा तो अपने निजी जीवन में इतना व्यस्त हो गया कि मां की कराह भी उसे सुनाई नहीं देती है और मां है कि उनकी सांसों की आवाज से उनकी बिमारी पहचान लेती है। सच में पूत कपूत हो सकता है पर माता कुमाता नहीं। फिर भी लड़के-लड़की में भेद किया जाता है। खैर मां तो मां है एक सुखद एहसास जिसका नाम लेने से सारी पीड़ाएं मिट जाती हैं। पाप के स्वर्गवास के बाद मां का समय के अतिरिक्त किसी से ढांढस नहीं बंधाया। बचपन से ही रचना देखती आ रही थी कि पापा के जाने के बाद से ही मां हमेशा काम में व्यस्त रहती थी। बड़े से बड़ा भारी से भारी काम भी उन्हें थकाता नहीं था। हफ्ते में कम से कम दो या तीन बार तो दुछत्ती पर रखा संदूक निकालती फिर उसमें रखी नेफ्थलीन की गंध से सने कपड़ों और कुछ पुरानी चीजों को एक-एक कर सहेजती फिर तह लगा के रख देती, मानो वह शिद्धत के साथ कुछ ढूंढ रही हो। और ना मिल पाने के अफसोस के साथ वो उसे वापस रख देती थी। तब लगता था कि मां को ज्यादा काम करने की आदत है इसलिए उठा-धराई करती रहती है, पर ये तो उनका आदतन कार्य था। यह भी तय है कि बहुत ज्यादा ऊंचाई पर रखा होने के कारण उस संदूक को नहीं छेड़ता था। पर फिर भी...। जाने क्या ढूंढती थी मां उसमें। रचना के बचपन से अब तक यह दौर चला आ रहा था पर अब की बार जब रचना ने मां से बेतहाशा साथ चलने की जिद की तो मां रुआंसी हो गई। बात आई-गई हो गई। दोपहर को जब इसी संदूक के साथ मां के आंसू देखे तो रचना भी दंग रह गई, जैसे कि माँ आंसुओ के साथ पिताजी से बातें करने की कोशिश कर रही हो । उफ्फ... कहीं मां पिताजी की यादों में तो...। इसका मतलब वो तब से अब तक अकेली है। हमें सुकून की नींद देकर खुद आंसुओं के साथ सोती रही। मां... कभी हमें अपनी उदासी का अहसास नहीं होने दिया। कितनी मजबूर, कितनी बेबस, बस तन्हाई और यादों के साथ खुद को समेटती रही। मां तूने कभी बताया नहीं । क्या मानव संवेदनाएं निर्जीव हो चली हैं जो एक मधुर संबंध भी महज औपचारिकता का मोहताज होकर रह गया है। एक केवल भोजन से ही जिंदगी नहीं चलती। भावनाओं और अपनत्व की भी आवश्यकता होती है, बच्चों को संभालती आंसू बहाती मां आज उन्हीं बच्चों के बड़े हो जाने पर उनके व्यक्तिगत जीवन से निकाल बाहर फेंक दी गई। आज वह अपने एकांकी जीवन की तिल-तिल अपनी आंखों के सामने जलता देख रही है और इंतजार कर रही है अपने अंत का। आज भी रचना के लाख कहने पर भी उस घर और उस संदूक को छोड़कर जाने के लिए तैयार नहीं। जहां हम जिंदा लोगों के साथ, अपने संबंधों की कन्नी काटते हैं। वहीं मां दिवंगत रिश्ते को भी जीवित रखे हुए। क्या सचमुच परिवार के छोटे-छोटे दुखों को नजरअंदाज करते हम क्या सिर्फ आत्ममुग्धता के शिकार हैं... भावनाओं के कच्चे-पक्के धागों से बांधे खट्टे-मीठे रिश्ते आत्ममुग्ध होने के सिवा कुछ नहीं।

मां क्या चाहती है.....


कोमल वर्मा

सर्वप्रथम मातृ दिवस के इस पावन पर्व पर मैं संसार की सभी माताओं को मोहिनी परिवार की ओर से शत्-शत् नमन करती हूं। संसार में शायद ऐसा कोई व्यक्ति नहीं होगा जो मां के आशीर्वाद के बगैर सफलता की मंजिल की ओर अग्रसर हुआ होगा। मां... जो बालक की कल्पना के चित्रों में रंग भरकर उसे साकार करती है। सच में मां के स्नेह जैसा कुछ और नहीं होता। मां एक अहसास एक विश्वास है। गर्भ में अबोली, कोमल आहट से लेकर नवजात के मासूम आगमन तक, मीठी किलकारियों से लेकर कठोर असहनीय बोलों तक, स्पर्श के आंचल तक मां मातृत्व की अपनी कितनी परिभाषाएं रचती है। जो हमारी यादों को अपने मन में ताउम्र संजोए रखती है जो हमारे बाल्यावस्था की नन्ही उतरन को अपनी पूंजी समझती है हमारे बीमार होते ही अपने चिंतायुक्त पोरों की गर्म सहलाहट के साथ लोरी गुनगुना देती है। वो महकते भावुक लम्हे भुलाए से भी नहीं भूलते। यहां हम एक ऐसी ही मां की बात कर रहे हैं। देवकी मां... कहते-कहते गांव के छोटे-छोटे बच्चे उससे लटक जाते थे। देवकी मां कभी उनके लिए टाफियां लाती तो कभी बिस्किट। देवकी मां कुएं के पास वाले मकान में अकेली रहती थी। कहने को तो उसके चार बेटियां, दो बेटे थे। पर बहुत कम ही लोगों ने उन्हें देवकी अम्मा के पास देखा था। पिछली बार पिता की मृत्यु के समय क्रियाकर्म को एक दिन के लिए आए थे। देवकी अम्मा अब बूढ़ी हो चली आंखों से ज्यादा दिखता नहीं, अपनी हारी, बीमारी, नाराजगी, प्यार सब बाबा की फोटो से कह देती थी सभी की तरह वह भी यही सोचती थी कि उसके बच्चे अब उसको फूंकने ही आएंगे। जाने कितने ही मौसम उसने औलाद पर आंसू बहा के गुजार दिया। देवकी अम्मा के दोनों बेटे दिल्ली में रहते हैं परंतु एकल परिवार के चलते दोनों के बीच काफी दूरियां थीं। बेटियां सभी अच्छे घर में ब्याही थीं। गर्मियों की छुट्टियां हुईं बच्चों को वन-डे पिकनिक पर ले जाने के कार्यक्रम के तहत सभी ने मिलकर कार्यक्रम बनाया कि गांव जाया जाए और फिर मदर्स डे भी था। जो इतने सालों में पहली बार याद रहा। वर्ष में एक बार प्यार जताने 21 लोगों का झुण्ड निकल पड़ा गांव की ओर। सब खाने पीने का सामान साथ लेकर पता नहीं वहां कुछ होगा भी कि नहीं, क्या बनाती होगी, हाइजीन नहीं होगा। साबुन वगैरह भी रख लिया। गांव पहुंचे देवकी अम्मा बेबसी और एकांकीपन को सहेजे खाट पर बैठी थी। एकाएक झुण्ड घर के आंगन में देखकर वह दंग रह गई। आंखों से भले ही कम दिखता हो पर मां तो बच्चों की हर आहट भांप लेती है। बड़बड़ाहट में बोली तुम सब एक साथ पर मैं तो भी जिंदा हूं। तभी उनमें से एक नन्हा बालक बोला नानी हम मदर्स-डे मनाने आए हैं। देवकी अम्मा बोली ये कौन सा त्यौहार है जो दस साल में एक बार आता है। खैर... अम्मा की रसोई में सब सामान रखा गया। हालांकि अम्मा की बहू बेटियों को उनकी रसोई कबूतर खाने से कम न लगी पर कुछ घंटे ही तो बिताना था। बड़ा बेटा बोला और बता मां क्या हालचाल है। बेटा अकेली हूं... मां बोली और अकेलापन सबसे बड़ी बीमारी होता है। चल छोड़ मां हम तेरे खाने के लिए बहुत सी चीज लाए हैं और यह कहते हैं उसने आधुनिक संसार की सारे व्यंजन परोस दिए। पर देवकी अम्मा ने तो उनका कभी नाम भी न सुना था। देखकर ही हाथ जोड़ दिए तुम लोग खाओ मैंने तो अभी दाल-भात खाया है। इतना सब साथ लाए थे पर ये ना पता था मां क्या खाती है पर मां जो बच्चों के मन की थाह लेकर हर बेस्वाद चीज को स्वादिष्ट बना देती थी। अपनी पसंद मां का क्या है जो रोज खाती होगी खा लेगी। पर क्या दादी और नानी के रूप में उसकी ममत्व बच्चों को दुलराना चाहता था पर हाइजीन न होने के कारण बच्चे इसके पास तक न आए। बच्चे क्या बड़ों ने भी इसे छुआ तक नहीं। देवकी अम्मा ने पूछा- कितने दिन रुकोगे बेटा। बस शाम को चले जाएंगे। तुझे भी परेशानी होगी ना, तू आराम से सोना। तू बूढ़ी हो चली है। देवकी अम्मा ने मन में सोचा हां बेटा परेशानी तो होती है जो मां बड़े जतन से बचें को पालती है वह बच्चे चन्द मिनटों के लिए उसका इतना ख्याल रखें। सचमुच कितना धैर्य होता है मां के भीतर। कल जिन्हें वह सिखाया समझाया करती थी आज वही उसे सिखलाते हैं कि क्या कहें क्या ना करें। मातृत्व को इस धरती पर देवन्त का प्रतिरूप माना गया है चलो कुछ पल के लिए ही सही उसके बच्चों को इस भगवान की याद तो आई। मां बूढ़ी हो चली है ठीक भी है। बच्चों की नजरों में मां का बुढ़ापा नजर आ ही जाता है पर मां के ही नेत्र हैं जो बच्चों को बूढ़ा नहीं होने देते। सभी कुछ घण्टों के बाद सावत्री अम्मा फिर अकेली थी।
सब जा चुके थे लगता था आज फिर भूखे सोना पड़ेगा। क्यूंकि मां क्या खाती है क्या चाहती है उसके भोले बच्चे कभी समझ ही नहीं पाएंगे। मां की पीड़ा, उसका
असहायपन क्या किसी को दिखाई नहीं दिया। कुमकुम की रंगोली सी पावन मां
उन्हें अनहाइजीन लगी। जिसकी देह से अमृतपान कर उन्होंने जीना आरंभ किया, उसको छूना गवारा न समझा उसका स्पर्श, उनका अहसास, निश्छल प्रेम सब बेकार जो इतने सालों तक खोजकर न लेने वाले बच्चों पर अनायास ही उमड़ पड़ा। उसका चन्द्रमा सा शीतल धैर्य तब भी न डिगा। वास्तव में मां शस्दातीता है, वर्णनों से परे उसके हृदय से सर्दव सुकल्याण का एक शीतल जल थिरकता है- मेरी संतान यशस्वी हो, चिरायु हो, संस्कारी हो, सफल हो और वैभवशाली हो। परंतु वही संतान बड़े होकर यह भूल जाती है कि मां क्या चाहती है। मां की अप्रतिम सुगंध हमारे रोम-रोम से प्रस्फुटित होती है हमारी सांस उसकी ऋणी है। यह वही मां है जिसको अपनी सुख-सुविधाओं और वैभवपूर्ण जीवनशैली के चलते हम अकेला छोड़ देते हैं।

कितना सुखद, कितना पवित्र
निष्पाप है ये सम्बोधन,
बस एक मां के होने से,
बन जाता है ये जीवन
मां तू कुछ कहती नहीं,
कितना सहती रहती है।
तू लिप्त है मुझमें अन्तरतम्
फिर क्यूं सिसकती रहती है।
मैं तेरी देह की माटी हूं,
फिर भी समझ नहीं पाती हूँ
कि मां क्या चाहती है...।

माँ की गुदगुदाती गोद.............


कोमल वर्मा


माँ के प्रति कृतज्ञता व्यक्त करने के लिए एक दिवस नहीं एक सदी भी कम है। किसी ने कहा है ना कि सारे सागर की स्याही बना ली जाए और सारी धरती को कागज मान कर लिखा जाए तब भी माँ की महिमा नहीं लिखी जा सकती। मातृ दिवस पर हर माँ को उसके अनमोल मातृत्व की मोहीनी परिवार की ओर से बधाई। इस एक रिश्ते में निहित है अनंत गहराई लिए छलछलाता ममता का सागर। एक कोमल अहसास। इस रिश्ते की गुदगुदाती गोद में ऐसी अनुभूति छुपी है मानों नर्म-नाजुक हरी ठंडी दूब की भीनी बगिया में सोए हों।
हमारे समाज में हर बात को महत्व देने के लिए 365 दिनों में से सिर्फ एक दिन तय कर दिया गया हैं, पर माँ को महत्व देने के लिए सिर्फ एक दिन काफी नहीं हैं। जिस तरह माँ की ममता और प्रेम असीमित और नि:स्वार्थ है, उसी तरह माँ के लिए हर दिन एक महत्व लिए होना चाहिए, और सिर्फ दिन ही क्यों बल्कि हर क्षण वह हमारे लिए महत्वपूर्ण होनी चाहिए। नारी अपनी संतान को एक बार जन्म देती है। लेकिन गर्भ की अबोली आहट से लेकर उसके जन्म लेने तक वह कितने ही रूपों में जन्म लेती है। यानी एक शिशु के जन्म के साथ ही स्त्री के अनेक खूबसूरत रूपों का भी जन्म होता है। पर सरोज की आपबीती आम नहीं है।
हर माँ की तरह सरोज भी आदित्य के जन्म पर बहुत खुश थी। इतने बर्षो बाद घर में नन्हे बालक की मधुर किलकारी गूंजेगी, मनोहर गीत गाए जाएगें, सबकुछ बेहद अद्भुद लग रहा था। वह अपने निश्छल स्वप्न में डूबी ही थी कि उसी पल डाक्टर का बुलाबा आ गया मानो किसी अनहोनी की आंशका हो। मिसेज सरोज आपके बेटे के दोनो पैर खराब है डाक्टर ने कहा। इस एक वाक्य के साथ सरोज के पैरो तले से जैसे जमीन खिसक गयी हो। आप धैर्य रखे शायद आपका प्रेम और विश्वास ही इसे चलने में मदद कर सकता है। सरोज की ममता चीख-चीख कर कह रही थी कि उसके लाभ ईश्वर ने ऐसा अत्याचार क्यूं किया। आदित्य जिसने अभी ठीक से नेत्र की न खोले क्या वह कभी अपने पैरों पर न चल पाएगा। सरोज के अश्रु रुकने का नाम नहीं ले रहे थे। वह सोच रही थी कि कहां से वो इतना थैर्य ले आए कि उसकी अबोली संतान को मिला यह अभिशाप वरदान बन जाए। सरोज ने मन ही मन दृढ़ता का निश्चय किया और डॉक्टर द्वारा बर्ता आदित्य की चिकित्सा शीघ्र ही आरम्भ कर दी। तीन माह के आदित्य ने पहली बार अपना पैर हिलाया। सरोज की खुशी का ठिकाना ना था? उसकी तपस्या और प्रार्थना रंग ला रही है। मां की मेहनत और ममत्व की आगाघ छाया में पांच वर्ष का आदित्य अब वैसाखी से चलने लगा था। सरोज उसे देखकर फूली न समाती थी। ुसकी गोद में खेलता चंचल आदित्य ठीस वर्, का हो चुका था। सरोज उसकी दिनचर्या में अपनी दिनचर्या भूल गीय थी। आदित्यव की देखभाल में कहीं कभी न रहे इसलिए सरोज ने दूसरी संतान को जन्म नहीं दिया। आदित्य के मन में मां के प्रति अटूट श्रद्धा थी। मां ने अपना जीवन त्याग कर पूरा समय उसका जीवन संवारने में जो लगा दिया था। किशोर को फिर वैसाखियों की भी अधिक आवश्यकता न थी। डाक्टर के अनुसार अब एक आपरेशन के बाद कृत्रिम यंत्रों के सहारे आदित्य चल सकता था। आपरेशन की तैयारी हुई, आपरेशन के बाद पन्द्रह दिन तक डाक्टरी चिकित्सा में रखकर आदित्य को कृत्रिम पैर लगाए गए धीरे-धीरे लगभग तीन-चार माह में आदित्य ठीक से चलने लगा। सरोज तो जैसे खुशी से पालग हो गयी। बीस वर्ष पहले आदित्य के जन्म के समय जो उसने स्वयं से वादा किया था। आज वो पूरा होते देख रही थी। .. वो आदित्य से बोली-बेटा अब तुम अपने पैरों से दुनिया धूमोगे, जहां-चाहोगे वहां जा पाओगे.....। मां की ऐसी अवस्था देख आदित्य ध्म्म से सरोज की गोद में आ गिरा और बोला माँ.....क्या अब मुझे आपकी गुदगुदाती गोद नहीं मिलेगी, कहीं आपके आंसू आपको मुझसे अलग तो नहीं कर देगे। इससे तो में अपंग ही अच्छा था। आप हर वक्त मेरे समीप तो रहती थी। सरोज ने स्नेह से आदित्य को डपहते हुए कहा-हट पगले अब तो मै तेरा व्याह करूंगी। चांद सी दुल्हन लाऊंगी। आदित्य शरमाते हुए बोला-नहीं माँ बो फिर बकवक करेगी और फिर मुझे आपसे दूर कर देगी। फिर आपका स्नेह भरा स्पर्श कहां मिलेगा। ऐसे ही सदा साथ में रहना मां। वैसे तो कोई सन्तान माँ का ऋण कभी नहीं चुका सकती परन्तु मैं आपका ऋण चुकाने की सोच भी नहीं सकता। इस रिश्ते के वगैर मैं नितान्त अकेला हूँ माँ. सरोज की आंखें छलछला गयी।
सच माँ कुमकुम की रंगोली सी पावन होती है जो हमारी यादों को अपने मन में ताउम्र संजोए रखती है जो हमारे बाल्यावस्था की नन्ही उतरन को अपनी पूंजी समझती है हमारे बीमार होते ही अपने चिंतायुक्त पोरों की गर्म सहलाहट के साथ लोरी गुनगुना देती है। वो महकते भावुक लम्हे भुलाए से भी नहीं भूलते। उसका चन्द्रमा सा शीतल धैर्य तब भी न डिगा। वास्तव में मां शस्दातीता है, वर्णनों से परे उसके हृदय से सर्दव सुकल्याण का एक शीतल जल थिरकता है- मेरी संतान यशस्वी हो, चिरायु हो, संस्कारी हो, सफल हो और वैभवशाली हो। परंतु वही संतान बड़े होकर यह भूल जाती है कि मां क्या चाहती है। मां की अप्रतिम सुगंध हमारे रोम-रोम से प्रस्फुटित होती है हमारी सांस उसकी ऋणी है।


कितना सुखद, कितना पवित्र
निष्पाप है ये सम्बोधन,
बस एक मां के होने से,
बन जाता है ये जीवन
मां तू कुछ कहती नहीं,
कितना सहती रहती है।
तू लिप्त है मुझमें अन्तरतम्
फिर क्यूं सिसकती रहती है।
मैं तेरी देह की माटी हूं,
फिर भी समझ नहीं पाती हूँ
कि मां क्या चाहती है...।

यादों की सौगात






कोमल वर्मा

कई बार यादें खुशी देती हैं तो कभी रुला देती हैं। यादें तो यादें हैं...। भावुक पलों में मीठी यादों का रोमानी एहसास एक अजीब सी सिहरन पैदा कर देता है। हम हंसते हंसते रो पड़ते हैं और रोते रोते हंसने लगते हैं। क्या आपने कभी पुराने फोटो एल्बम पलटते हुए यादों के संसार में लौटे हैं। इसका अपना एक अलग ही अनुभव है। यादें कुलबुलाती हैं। यहां तक कि हमारे इन बाक्स में पड़े मैसेज हमें यादों के पुराने संसार में ले जाते हैं। सुकून देती है यादें...
कभी कभी तो ख्वाबों में साक्षात प्रकट हो जाती है। लोग चले जाते हैं रह जाती हैं तो बस यादें। लोग कहते हैं याद उन बातों को किया जाता है जो हम भूल जाते हैं पर जब सब याद हो तो... हम यादों की कठपुतली बन जाते हैं। एक खूबसूरत एहसास जगाती है यादें। वे हमारी सच्ची दोस्त हैं। इस दोहरे संसार में जब खिड़की से झांकती हैं तो आसमान में यादों के टुकड़े दिखते हैं। कहते हैं वक्त हर जख्म पर मरहम लगा देता है, पर यादों का कोई वक्त नहीं होता। जज्बात जब उमड़ते हैं वो हमें समेटने आ जाती हैं। यादें किसी के साथ भी क्यूं न जुड़ी हों, उनके साथ वो पल खुद गुनगुनाने लगते हैं। यूं तो लोग अपनी अपनी अच्छी बुरी यादें स्वयं बनाते हैं। कुछ कुछ बदलने से बहुत कुछ बदल जाता है। परीक्षाएं लगभग समाप्त हो चुकी हैं। पेपर कुछ अच्छे गए कुछ बुरे। दोस्तों के साथ वो रात भर पढ़ाई। समय मिलते ही फोन पर गपशप, गर्लफ्रेंड की बुराई सब छुट्टियों की भेंट चढ़ जाती है और फिर रह जती हैं बस यादें।
सपना और अभिषेक की तो पूरी जिन्दगी यादों में ही सिमट गई। बीएससी में प्रवेश फार्म भरने के समय दोनों की नन्हीं सी मुलाकात हुई थी। पर क्या पता था ये दोस्ती आगे जाकर इतनी गहरी हो जाएगी। कालेज में लड़ते झगड़े सारा काम एक साथ करते। वे दोस्ती के एक बहुत अच्छे रिश्ते में बंध चुके थे। दोस्ती अपने आप में एक बहुत प्यारा गिफ्ट है। जहां किसी शंका अथवा औपचाकिता की गुंजाइश नहीं रहती। बीएससी के तीन साल कैसे बीत गए पता ही नहीं चला। अब तो घर जैसा व्यवहार होने लगा था। दोनों का एक दूसरे के घर आना जाना रहता था। कहीं न कहीं उनकी दोस्ती एक नया रूप ले रही थी, पर अब भी दोनों इस बात से अंजान थे। अभिषेक का सीधापन सपना को बहुत अच्छा लगता था। उसकी हर बात में सपना की अंतिम राय होती थी। सपना के साथ भी कुछ ऐसा ही था। दोनों ने साथ में एमएससी का फार्म भरा। दीन दुनिया की खैर खबर लिए बिना दोनों बस एक दूसरे के साथ खुश रहते हैं। कहते हैं रिश्ते जब करवट लेते हैं तो वक्त उनकी जिम्मेदारियां बढ़ा देता है। हुआ भी यही दोनों की दोस्ती इतनी ज्यादा गहरी हो गई कि एक दूसरे को किसी अन्य के साथ देखना इन्हें चुभने लगा। अभिषेक ने बातों ही बातों में सपना के समक्ष शादी का प्रस्ताव रख दिया। थोड़ी बहुत ना नुकुर के बाद सपना ने भी इसे स्वीकार कर लिया। अब घरवालों को मनाना, उन्हें तैयार करना, उन दोनों के हाथ में था। अभिषेक ने विश्वास व भोलेपन से अपने घरवालों को सपना और अपने विषय में सब बता
दिया और अपेक्षा के अनुरूप वो मान भी गए पर सपना के मन में शायद कुछ और ही था। अभिषेक के बार बार कहने पर सपना मामले को टालती रही। अभिषेक का परिवार सपना के परिवार से मिलने की बातें करता पर अभिषेक के पास इन बातों का कोई जवाब नहीं था। सपना का व्यवहार दिन ब दिन  बदलता गया। अभिषेक का विश्वास सपना से और उन पांच सालों से जब वह उसे जानता था। उससे जुड़ा हुआ था। अभिषेक के बार बार फोन करने पर सपना उससे कटने लगी। अभिषेक की मुस्कान फीकी पड़ती गई। उसे क्या पता था दोस्ती के आगे का एक कदम उसकी दोस्ती भी छीन लेगा। इस स्थिति में असहज होना लाजमी था। एक दिन अभिषेक की मुलाकात सपना की सहेली से हुई उसने जो बताया अभिषेक उसके बाद फिर उठ नहीं पाया। सपना की शादी बहुत पहले तय हो चुकी थी। जिन्दगी की इतनी बड़ी सच्चाई से अनभिज्ञ अभिषेक अपने अटूट विश्वास की धोखेबाजी सहन न कर पाया। पांच साल की दोस्ती में सपना ने कभी उससे कोई बात न छिपाई थी। फिर अब ऐसा क्या हो गया। ये सब करना था तो वो क्यूं किया। दर्द से निकलना इतना आसान नहीं होता। एक दिन कोई साथ रहता है तो वह लम्हा भी यादों में शामिल हो जाता है। जहां वो बेकसूर अभिषेक की पूरी जिन्दगी यादों की पहेली बन गई थी। सपना ने ऐसा क्यूं किया। क्यूं अंधेरे में रखा... इन्हीं सब विचारों के साथ अभिषेक की हालत दिन-ब-दिन बिगड़ती गई। क्या शेष था इसके पास। जब प्यार का अहसास हुआ तो वो खो गया। अब वो कोई रिश्ता नहीं रह गया था। ये कैसी यादों की टीस है जो भूलने पर ज्यादा पीड़ा देती है। कुछ लोग मरकर इनसे छुटकारा पा लेते हैं तो कुछ वक्त के साथ संभल जाते हैं पर फिर जब उन यादों का साक्षात्कार होता है तो पुराने जख्म फिर ताजा हो जाते हैं समय के साथ अभिषेक भी संभल गया।
सपना तो फिर भी खुश रह लेगी, पर सपना के साथ गुजारे खूबसूरत लम्हें शायद वो ना भुला पाए। जिन्दगी ने उसे एक सीख भी दी कि उसे अब जल्द ही किसी पर विश्वास नहीं करना है। जाने कितने ही अभिषेक और सपना इन यादों की परिभाषा गढ़ते हैं। इंसान में अगर भावनाएं न होतीं तो कितना अच्छा होता, तब उसे प्यार का एहसास होता न पीड़ा का। सब कुछ सामान्य ही रहता। कुछ छूट जाती है। कुछ रूठ जाती है पर जिन्दगी तो फिर भी चलती रहती है अनवरत उन्हीं यादों के संसार के साथ। जिन्दगी के इन्हीं विभिन्न रंग रूप और खुरापाती हादसों के चलते मैंने भी यदि किसी की स्मृति में अपनी मायूस यादें भर दी हों तो मुझे क्षमा करना। सचमुच यादें बहुत खूबसूरत होती हैं। चाहकर भी कोई इनसे अलग नहीं रह पाता। साथ कब आदत और आदत कब जरूरत बन जाती है पता ही नहीं चलता। उन यादों में हर सस्ती चीज कितनी कीमती हो जाती है।


जिन्दगी इस कदर भी गुनाहगार न बने
कोई किसी के प्यार में बीमार न बने
यादों की कश्ती वो जिन्हें पार ले जाती है
वो समुन्दर तो बने पर वो ज्वार न बने।


क्या विश्वास करना गलत है?



कोमल वर्मा


अनजानी सी दुनिया है किसके खोल में कौन छिपा बैठा है, किसकी मुस्कुराहट के पीछे क्या है कहा नहीं जा सकता। धोखे का तो नाम ही बुरा है, फिर भी यहां हर कदम पर धोखा है। किसी के साथ ख्वाब सजाना भी बेमानी है, क्योंकि हकीकत की दुनिया बहुत सीमित होती है और सपनों का दायरा असीमित....। इसलिए सपनों को बमुश्किल ही हकीकत की पनाह मिल पाती है। इंसानी फितरत को अनदेखा कर जब हम पूरे विश्वास के साथ किसी की परछाई बनकर चलने लगते हैं तो इसी विश्वास को हिस्सों में बंटने पर देर नहीं लगती है और फिर हम नियती को दोष देते हैं। पर दिल तो मासूम होता है पुन: किसी से मिलता है तो रिश्ते गढऩे लगता है फिर पहले धोखे को भूलकर नई चोट खाने के लिए तैयार हो जाता है। इस प्रकार मानवीय उलझनों के बेशुमार जंगल से गुजरते हुए एक न एक दिन वह बेचैनी भरा एकान्त हमारी जिंदगी में आ ही जाता है जब हम खामोशी से मन की मिट्टी को कुरेदते हैं और सोचते हैं उन रिश्तों के बारे में जो अचानक बदल जाते हैं। वे रिश्ते जो हमारी पृष्ठभूमि का अचल विश्वास बनकर पर्वत जैसे अविचल खड़े थे और दिल को अपनी उपस्थिति से आश्वस्त करते रहते थे। फिर यकायक क्या हो जाता है कि बिना किसी के कुछ कहे विश्वास के वो घरोंदे टूटकर बिखरने लगते हैं या हो सकता है कि हम ही किसी की चालों से अनभिज्ञ हों।
विश्वास की इन्हीं परतों में चित्रा दुबे (रीवा) का सच एक बारगी हमें अपने संबंधों के विषय में सोचने पर मजबूर करता है। रागनी और चित्रा पहली कक्षा से ही दोस्त थीं। स्नातक आते-आते दोनों की दोस्ती इतनी गहरी हो गई थी कि लोग उनकी दोस्ती की मिसाल देते थे। दोनों ही सहेलियां एक-दूसरे की प्रशंसा करते न थकतीं। एक का घर जैसे दूसरे का आंगन बन गया था। उन्हें देखकर ही नजर उतारने को सबका जी चाहता था। जो एक पहनता वही दूसरे को भाता। इतने लम्बे रिश्ते में कभी दोनों में बहस तक नहीं हुई। हर चीज का साझा होता था। इनके बीच में तो माता-पिता भी नहीं बोलते थे। दोनों के स्वभाव में भी अंतर था। देखने में दोनों ही सुंदर थीं। जहां एक ओर रागनी बड़बोली थी वहीं चित्रा शांत थी। पर इस पर भी बातें दोनों एक-दूसरे की मानते थे। उनके बीच कोई बात छिपती थी। स्नातक का द्वितीय वर्ष था, परीक्षाएं आने ही वाली थीं। चित्रा के हावभाव रागनी को बदले लगने लगे। क्यूंकि साथ बहुत पुराना था इसलिए इंसान आंखों की भाषा भी समझने लगता है। रागनी ने चित्रा से कुछ न पूछा। इससे पहले कि चित्रा उसे कुछ बता पाती, रागनी ने उसकी खामोशी का कारण पता लगा लिया। दोस्ती का रिश्ता ही ऐसा होता है, अबे जा... हट..., भूल जा...., चलते हैं यार.... से शुरू होता है और मन की बातें पढऩे लगता है कुछ भी, कहीं भी, दोस्त तो हर जगह तैयार रहते हैं। रागनी ने भी चित्रा के मन की बात पढ़ी और विकास को उसके सामने खड़ा कर दिया। चित्रा स्तब्ध रह गई क्योंकि उसने तो रागनी को बताया ही नहीं कि वह विकास को प्रेम करने लगी है। खैर चित्रा मन ही मन अपने ईश्वर को धन्यवाद दे रही थी कि उसने ऐसी दोस्ती पाई है फिर क्या था। चित्रा और विकास के घरवालों को मनाने की जिम्मेदारी भी रागनी ने ही ले ली। भले ही यह अन्तरजातीय विवाह था परंतु बेटी की खुशी और रागनी की समझाइश और कोशिशों के चलते सभी ने इस रिश्ते पर मोहर लगा दी। स्नातक अंतिम वर्ष की परीक्षा के तुरंत बाद दोनों का विवाह कर दिया गया। चित्रा इस समय स्वयं को सबसे ज्यादा खुशकिस्मत मान रही थी। ऐसी समझदार दोस्त और मनचाहा पति पाकर सपनों को पंख लग गए हों। आरंभ के कुछ समय में फिर बाद में विकास के साथ उसकी पोस्टिंग वाली जगह पर रहने चले गए सबकुछ एक ख्वाब सा था। विकास उसकी बहुत देखभाल करता था। वह हर छोटी से छोटी बात रागनी को बताती। यूं भी शादी से पहले से ही रागनी का विकास के घर आना जाना था। एक तरह से वह उन दोनों की कॉमन फ्रेंड भी थी। चित्रा और विकास के दिन बहुत अच्छे बीत रहे थे। चित्रा जितना विकास पर विश्वास करती थी उससें कहीं ज्यादा रागनी पर विश्वास करती थी। समय बीतता गया चित्रा को मां बनने का सौभाग्य भी प्राप्त हुआ। अब उसकी दुनिया पूरी हो चुकी थी। विकास का ध्यान धीरे-धीरे चित्रा से कटने लगा। चित्रा को लगा शायद ऑफिस में काम ज्यादा हो और सोचकर वो भी अपने बच्चे के साथ व्यस्त हो गई। कई बार उसने विकास की चिड़चिड़ाहट का कारण जानना चाहा पर विकास ने तबियत खराब का बहाना बनाकर टाल दिया। धीरे-धीरे स्थिति इतनी बिगड़ गई कि साथ रहते हुए भी दोनों के बीच एक लम्बी खिंच गई। विकास का रुख चित्रा की तरफ से और कड़ा होता गया। चित्रा की गृहस्थी को जाने किसकी नजर लगी थी। वह रोज रागनी को दर्द बताती उपाय मांगती रागनी उसे ढांढस बंधाती और संयम रखने को कहती। विकास की बेरुखी चित्रा को किसी अनजान आशंका से घेर रही थी। मुश्किलें बढ़ती जा रही थीं। चित्रा को विकास की बहुत फिक्र होने लगी थी परंतु संदेह की परतें इतनी भी कमजोर नहीं होती कि आंखें बंद करके बस तमाशबीन बना जाए। इसी संदेह के चलते चित्रा को पता चल गया कि विकास किसी अन्य औरत से मिलता है। उसने विकास को रंगे हाथ पकडऩे की सोची। एक दिन सुबह-सुबह वह विकास से बोली मुझे पन्द्रह दिन के लिए अपनी मां के घर जाना है। विकास ने सहमति से सिर हिला दिया। फिर क्या था चित्रा ने सामान उठाया और इसी शहर में कमरा लेकर विकास पर नजर रखने लगी। बेटे की जिम्मेदारी के लिए उसने मां को भी बुला लिया था। उसी दिन रात्रि में उसे पता चला कि वही औरत विकास के साथ इस घर में है। इन दिनों उसने रागनी को भी कुछ बताना ठीक न समझा। इस रात चित्रा दनदनाते हुए विकास के घर पहुंची और जो देखा उससे उसका हृदय लहूलुहान हो गया। रागनी और विकास चित्रा की हत्या की योजना बना रहे थे ताकि रागनी विकास से विवाह कर सके। चित्रा को एक पल उसके कानों और आंखों पर विश्वास न हुआ। वह उल्टे पांव वापस लौट आई। अब वह किसे दोष दे अपने पति को या अपनी अति विश्वासपात्र दोस्त रागनी को। उसका भरोसा छलनी हो चुका था।
आज की दुनिया में जहां अपने रिश्ते दगा दे जाते हैं वहां लोग गैरों पर विश्वास कर उन्हें अपने मन के करीब तो कर लेते हैं पर जब वे भी पीठ में छुरा घोंपें तो उनसें मानवीयता की कल्पना करना भी मुश्किल हो जाता है। चित्रा ने फिर कभी इस शहर की ओर भी नहीं देखा। जब रिश्तों में कड़वाहट आ जाती है तब एक लंबा अरसा गुजरने के बाद नफरत और क्रोध का आवेग सुस्थिर होने लगता है। भावविह्वल मन फिर छटपटाने लगता है उन्हीं छूटे हुए रिश्तों के लिए। दिल चाहता है टूट जाएं ये रिश्ते.........और हुआ भी यही दोनों के बीच तलाक की औपचारिकता के बाद बचा रिश्ते का धागा भी टूट गया। चित्रा फिर भी खुश है आज उसका बेटा डॉक्टर है और स्वयं एक प्रतिष्ठित स्कूल में शिक्षिका है। यदा-कदा दोस्तों से रागनी और विकास के बारे में पता लग जाता है दोनों आज भी अलग-अलग रहते हैं। शायद चित्रा को दिये धोखे ने रागनी में आत्मग्लानि भर दी थी। जो वह विकास से विवाह न कर पाई। जिसने चित्रा और विकास के रिश्ते की नींव रखी थी वही उसे निगल गई। दूसरी शादी का दबाव बनाते-बनाते उसने विकास और चित्रा को तो अलग करवा दिया पर स्वयं भी उसकी न हो पाई। किसी ने सच ही कहा है, जो दूसरों के लिए खाई खोदता है वह स्वयं को उसमें गिरने से नहीं बचा सकता।

कुछ बात नहीं, बस चोट लगी,
उन रिश्तों ने झुठला ही दिया,
पत्थर ने फिर शीशा तोड़ा,
और चूर-चूर विश्वास हुआ।

खुशियां जरूरी है जिन्दगी के लिए......



कोमल वर्मा

मानव जीवन बड़ा जटिल होता है, मात्र पदार्थों के आश्रित होकर सुख शंाति की कल्पना नहीं की जा सकती। क्योंकि वह मशीन नहीं उसमें भावनाओं का झरना वहता है। जब वह पैदा होता है, तो उसके हाथ में कुछ नहीं होता, और जब वह यह दुनिया छोड़ता है तव भी उसके हाथ खाली ही होते है। परन्तु फिर भी अपने सम्र्पूण जीवनकाल में पूरी दुनिया समेट लेने का प्रयत्न करता है। मानव ही क्यों संसार का प्रत्येक जीव सुख एंव शंाति चाहता है। परन्तु हम राह पकड़ते है आह भरने की....। यदि हमने सोच लिया है कि सुख नसीब में नहीे है तो लाख कोशिश करें फिर भी असमंजस की धधकती ज्वाला हमें शीतल सुख के करीब कभी नहीं पहुंचने देगी। और फिर जीव अपने आस- पास का वातावरण स्वंय बनाता है। जैसे मच्छरो और खटमलों के मंडऱाते विस्तर पर कोई सो नहीे सकता, उसी प्रकार बिना सुख और भावनाओं के मनुष्य को एक एक पग धरने में कठिनाई होती है। संयम और संतोष धन अनमोल है। जो मानव को परिस्थितियों से लडऩा सिखाता है। झांसी की शांति सिन्हा ने इसी प्रकार परिथतियों से लडकर खुश रहकर व खुश रखकर जिन्दगी की गुत्थी को बड़ी आसानी से सुलझा दिया।
स्वभाव से हंसमुख शांति अति सामान्य परिवार से थी। उसके संम्पर्क में आया कोई भी व्यक्ति उसके स्वभाव से प्रभावित हुए बिना नहीं रहता था। घर व दोस्तों में वह सबकी चहेती थी। फिर भी हर माता पिता की तरह शांति के माता पिता को भी उसके विवाह की चिंता थी। लेकिन कहते है ना कोई किसी की किस्मत नहीे वूझ सकता, यह उसकी किस्मत ही थी कि उसके रूप रंग व गुणों से प्रभावित होकर उसके लिए एक अच्छे घर से रिश्ता भी आ गया। शादी के सुखद् सपने सजाए वह स्नातक होते होते वह मंत्रो व सात फेरों के साथ सात जन्मो के लिए संजीव से बंंध गयी। कहीं किसी को ससुराल अच्छा नहीं मिलता तो कहीं पति...। पर उसके साथ ऐसी कोई स्थिति नहीं थी। परिवार के सभी लोग बेेहद सज्जन थे। उसके हंसमुख स्वभाव ने शीघ्र ही सबको अपना कर लिया। अंकुर और राशि के जन्म के बाद तो जैसे उनकी खुशियंा जैसे पूरी हो गयी । लेकिन जहां खुशियां होती है वहां लोगो की नजर लगना भी स्वाभाविक ही है या यू कहें कि सुख का समय कब पंख लगा के उड़ जाता है पता ही नहीं चलता । एक शाम दफ्तर से बापस आते समय संजीव एक दुर्घटना का शिकार हो गए। और उनका आधा शरीर लकवाग्रस्थ हो गया। यह जिन्दगी का एक ऐसा मोड़ था जिससे कि एक पल में ही परिवार की खुशियों ने किनारा कर लिया। घर में मातम सा छा गया । संजीव की सेहत व घर के भविष्य को लेकर सब चिंतित रहने लगे । वह किस किस को समझाती। आखिर उसका दुख भी तो वही था। अभी शादी को केवल पांच वर्ष ही तो हुए थे। संजीव का भी हौसला गिरता ही जा रहा था। वे पहले से ज्यादा चिड़चिड़े और गंभीर हो गए थे। शायद उनका मनोबल जबाब दे रहा था। एकमात्र उनका वेतन ही पूरे परिवार का भरण करता था। दोनो बच्चे भी अभी वहुत छोटे थे। घर का खर्च, संजीव की सेहत, अंकुर और राशि का भविष्य व घर के बड़ो की देखभाल ने शांति को शीघ्र ही निर्णय लेने के लिए विवश कर दिया। उसने परिस्थतियों के अनुसार  स्वंय को तैयार कर लिया था। बहुत सोच विचार कर उसने अपने नौकरी के प्रस्ताव को सबके सामने रख दिया। युं भी सभी की निगाहे उस पर लगी थी। सबने हामी भर दी सिवाय संजीव के..............।  वे जरा भी नहीं चाहते थे कि शान्ति बाहर जाकर नौकरी करे। पारिवारिक जिम्मेदारियों एवं संजीव की मंशा समझते हुए शान्ति ने घर पर ही टिफिन सेंटर खेलने पर विचार किया। शुरूआती कठिनाइयों के बाद धीरे धीरे लोग शान्ति के स्वभाव से प्रभावित होने लगे। संजीव की दवाई, व्यायाम, मालिश, बच्चों की देखभाल सास ससुर एवं टिफिन सेंटर सभी जिम्मेदारियों को शांति ने बखूबी संभाल लिया। कभी किसी समस्या को लेकर उसके चेहरे पर शिकन तक न आती। शरीर में हरदम फुर्ती रहती जैसे हर काम के लिए हर वक्त तैयार हो। टिफिन सेंटर का काम अच्छा चल निकला। संजीव भी धीरे धीरे ठीक होने लगे थे। जो लोग शान्ति को जानते थे वो उसकी प्रशंसा करते न थकते थे। काम बहुत ज्यादा फैलने लगा। अब वह आफिस व समारोह में भी भेजे जाने लगे। शान्ति की मेहनत रंग लाई। पहले टिफिन, फिर केटरिंग और उसके बाद स्वयं का एक होटल। किसी ने सोचा भी न था कि जिन्दगी के उस दर्दनाक मोड़ से एक रास्ता खुशियों भरे रास्ते की ओर भी जाता है। बीस वर्ष में टिफिन सेंटर से होटल तक के सफर में शान्ति की मेहनत और मुस्कुराहट ने कभी उसका साथ ना छोड़ा और ना ही उसने  किसी को दुखी नहीं होने दिया। वह स्वयं तो हंसी साथ में सबको खुश रखा। शादी की पच्चीसवीं वर्षगांठ पर लोगों ने इनके सफल वैवाहिक जीवन और व्यवसाय में सफलता का राज पूछा तो उसका जवाब कुछ इस तरह था। सब संजीव का साथ है। उन्होंने दिन को रात कहा तो मैंने भी रात कहा। गुस्से को प्यार कहा तो मैंने भी वही समझा। जिन्दगी खुशियों के साथ कब यहां तक आ गई पता ही नहीं चला और फिर कौन सा दिन को रात कहने से वह रात में बदल जाता है। इतना सुनते ही सब हंस पड़े।
सच ही है खुशियां कहीं अन्यत्र नहीं अपने भीतर ही होती हैं। प्रदत्त साधन हमें ना सुख दे सकते हैं ना आनन्द। जीवन तो जीना होता है। यदि समस्याओं से घबराकर बैठ जाते हैं तो अपनों के सुख का अहसास खो देते हैं परन्तु शान्ति की तरह हंसते हंसाते जिन्दगी जीना और हर दुखद मोड़ पर संयम रखना ही सही मायनों में जीवन जीना होता है। दुनिया का व्यापार ही कुछ इस तरह का है  हम कभी सोच ही नहीं पाते कि हमारा सुख किसी बाहरी वस्तु या व्यक्ति का गुलाम नहीं है बाहर की परिस्थितियां तथा साधन मात्र उस आन्तरिक स्रोत से मेल कराने में ही सहायक होते हैं। विचार करने की बात है कि बाहर की दुनिया में तो कोई परिवर्तन नहीं हुआ फिर भला ऐसा क्या हो गया कि पहले वह सब दु:ख के सागर में डूब गये और फिर अचानक सुख के आसमान में उडऩे लगे। याद करें उपनिषद् वाणी, जो कहती है- 'अंयमात्मा ब्रह्मÓ ।

कोई घबराता है मौसिकी के लिए
कोई पी जाता है आशिकी के लिए
किसी का जुस्तजू है मोहलत की 
खुशियां जरूरी है जिन्दगी के लिए।

अनमोल मोतियों का सैलाब दिया तूने ..

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कोमल वर्मा
छोटे से आशियां में पूरी दुनिया बसाकर,दहलीज के दोनों पार फैलाव किया तूने,हर रूप में संवारा, हर रंग में निखारा,अनमोल मोतियों का सैलाब दिया तूने।
आठ मार्च महिला दिवस के रूप में दुनिया भर में मनाया जा रहा है। मोहिनी परिवार इस शुभ दिन पर ऐसी महिलाओं को नमन् करना चाहता है जिन्होंने अपना सम्पूर्ण जीवन अपने परिवार एवं समाज को समर्पित कर दिया। हर युग में प्रत्येक क्षेत्र में महिलाओं ने स्वयं को साबित किया है। सीता, सावित्री, द्रौपदी, अहिल्याबाई, झांसी की रानी, लक्ष्मीबाई, रानी दुर्गावती, सरोजनी नायडू, लता मंगेशकर, प्रतिभा पाटिल, सुष्मिता सेन, मदर टेरेसा, इंदिरा गांधी, इन्द्रा नूयी आदि बहुआयामी व्यक्तित्व की धनी ये महिलाएं नारी जाति का गौरव हैं। इन सभी महिलाओं में एक बात कॉमन है जो इन्हें श्रेष्ठ साबित करती है, वह है आत्मविश्वास, दृढ़ निश्चय, लगन, त्याग, समर्पण, कड़ी मेहनत व सार्थक प्रयास हमें निर्धारित लक्ष्य की ओर प्रेरित करते हैं जिससे कोई भी साधारण महिला अनुकरणीय बन जाती है।औरत, नारी, ी, मोहिनी, यामिनी, सुन्दरी, प्रकृति, शक्ति, स्नेह, ममता, स्नेहमयी, तपस्वी, भावुक, त्याग आदि महिला के अनेकों रूप हैं। कहीं उसकी सीमा घर का आंगन, परिवार, बच्चों की किलकारी होती है तो कहीं सम्पूर्ण देश की बागडोर संभालने वाली शक्ति के रूप होती है। इस प्रकार अपने संस्कारों को आधुनिकता के आंचल में सहेजती हुई वो निर्लज्जता के लांछन रूपी काले दाग से स्वयं को बचाती हुई आगे बढ़ रही है। पुरुषों की इस दुनिया में वह एक आदर्श शिक्षिका भी है और माँ भी। हर सफल पुरुष को किसी न किसी नारी का संबल प्राप्त है। सहनशीलता व कर्तव्यपरायणता में वह हर दृष्टि से पुरुषों से अग्रणी है।
धरोहर हैं बेटियां....
इक्कीसवीं सदी की महिला ने स्वयं की शक्ति को पहचान लिया है। आज वह प्रेम, स्नेह व मातृत्व के साथ शक्ति सम्पन्न भी है। आज के समय में उनमें गजब का आत्मविश्वास है, वर्तमान में तमाम कुरीतियों व कुंठाओं से परे आज माताएं बेटियों के जन्म पर अफसोस नहीं जतातीं। हमारे आसपास ही ऐसे कई परिवार मिल जाएंगे जिनकी इकलौती संतान बेटी है अथवा दोनों बेटियां हैं। श्रीमती एवं श्री सुनील कुमार जैन, श्रीमती एवं श्री बृजेश कुमार वाष्र्णेय, श्रीमती एवं श्री अतुल कुलश्रेष्ठ, श्रीमती एवं श्री किशन सिंह, श्रीमती एवं श्री जयसिंह वर्मा, श्रीमती एवं श्री पदमचंद आदि कुछ ऐसे उदाहरण हैं जिनके परिवार में केवल बेटियां हैं। वे भी उच्च शिक्षा व संस्कार से परिपूर्ण अपने परिवार का नाम रोशन कर रही हैं। ऐसे भी परिवार हैं जहां बेटियां गोद ली जाती हैं। साथ ही सम्पत्ति में अधिकार व वर चुनने की स्वतंत्रता भी दी जा रही है।औरत ने जनम दिया मर्दों को मर्दों ने उसे बाजार दिया....
क्या खास है...
महानगरों में उच्च शिक्षित युवतियों का छोटे-बड़े शहरों व गांवों से आकर रहना, नौकरी करना, अपनी पहचान बनाना इस बात को साबित करता है कि युवतियों के आत्मविश्वास में गजब का इजाफा हुआ है। अपनी अस्मिता को बनाए रखते हुए वह बड़ी आसानी से देश तो क्या विदेश में भी रहती, पढ़ती या नौकरी कर सकती हैं। उसने अपनी सही बात सही तरीके से कहना सीख लिया है। संघर्ष करते-करते अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता उसने स्वयं हासिल कर ली है। अन्याय का विरोध के चलते उनके परिणामों से भयभीत होना भी छोड़ दिया है। वह सही अर्थों में पति की सच्ची दोस्त, सखी, सहधर्मिणी बन चुकी है। आज वह सक्षम व हर सुख सुविधा जुटाने में बराबर की जिम्मेदारी लेती सफल मां, मायके व ससुराल के बीच सेतु बनती बेटी, बहू, सफल प्रबंधक व सहयोगी है।
स्नेह का प्रतीक...
ी का स्वरूप पानी की तरह है। जिस रंग में घोलते हैं उसी रंग का हो जाता है। उसे रिश्तों को विभाजित करना नहीं आता वह तो सिर्फ उन्हें भावनाओं के अनुरूप ढाल लेती है। मकान को घर व घर में गृहस्थी को वह पूर्ण बनाती है। वह उस आंगन की मिट्टी को अपनी ममता, स्नेह, सामंजस्य व तटस्थता से खींच कर पवित्र कर देती है।हारकर भी जीतती है...आज की महिला जिस जवाबदारी से व्यवसायिक दुनिया में सफल है उतनी ही कुशलता से घर गृहस्थी की भी जिम्मेदारी निभा रही है। आज पुरुष प्रधान समाज में महिला कितनी भी तरक्की कर ले। उसे पुरुष का अहं झेलना पड़ता है। पुरुष प्रधान समाज में स्वयं का अस्तित्व बनाए रखना कोई आसान काम नहीं है। समझौता ी का दूसरा नाम है। समाज में विवाहित ी को मान व इज्जत से देखा जाता है। आजीवन अविवाहित को नहीं। भारतीय नारी में अकूत सहनशीलता होती है। तभी तो बिना शिकायत के अपना जीवन अपने पति बच्चों व घरवालों की खुशी के लिए बांट देती है। यही फर्क है दुनिया भर की महिलाओं व भारतीय महिलाओं में। इसलिए आज भारत अपेक्षाकृत ज्यादा सुखी है। यहां लोग परिवार को प्रथम स्थान देते हैं।
एक पहलू यह भी...
आमतौर पर लोग आज भी महिलाओं को दोयम दर्जे का नागरिक मानते हैं। कारण चाहे सामाजिक हो या आर्थिक, परिणाम हमारे सामने हैं। आज भी दहेज के लिए हजारों युवितियां जलाई जा रही हैं। रोज न जाने कितनी कमसिनें यौन शोषण का शिकार बनती हैं और कितनी ही अपनी सम्पत्ति से बेदखल होकर दर-दर भटकती हैं। गांव से लेकर बड़े शहरों तक यदि महिला आर्थिक व दैहिक शोषण की सूची तैयार की जाए तो औपचारिक कानूनी सुरसा की धज्जियां उड़ जाएंगी। कहीं, कानून तो कहीं उसकी पेचीदगियां उसको शोषित होने पर मजबूर कर देती हैं।
कुल मिलाकर एक द्वंद्व से गुजर रही औरत अपना अस्तित्व कायम रखने के लिए लड़ रही है। कभी दहलीज के अन्दर तो कभी बाहर तो कभी अपनी ही नस्ल से या कभी खुद से, उसके लिए हर दिन एक जीवन है। जिसे उसे पूरी ईमानदारी से जीकर हर रात क्या खोया क्या पाया का हिसाब लगाकर एक नये दिन को जन्म देना है। कोई फर्क नहीं पड़ता कि एक दिन पहले वह कितने नुकसान में रही। वह फिर नयी उम्मीद के साथ जिएगी अपनी कोमल भावनाओं को उसी रूप में सहेजने के लिए चाहे वो ऊपर से कितनी ही कठोर क्यों न हो जाए।

रविवार, जून 05, 2011

08 May 2011


01 May 2011


aas bus ek satha ki thi....


एक पत्र मां के नाम...।

प्रिय माँ,

टेलीफोन और मोबाइल के युग में मेरा यह पत्र पाकर आपको आश्चर्य हो रहा है न .... मां। आज मैंने सोचा जिस तरह मैं आपके विचारों और सीख को आज तलक पढ़ती रही हूं, उन पर चलकर खुद की जिंदगी बेहतर बनाने के लिये। आज आठ मई के मुकद्दस मौके पर तमाम कही-अनकही बातें और आपकी यादें, सहज ही जब कागज पर उभर आयीं, तब आप जैसी मुकम्मल मां की तरह ही मेरे यह विचार भी एक मुकम्मल पत्र की शक्ल अख्तियार कर बैठे। सो... लगा, क्यूं न अपनी भावनाएं पत्र के रूप में लिखकर इसे आपके जीवन का ही नहीं अपनी जिंदगी का भी दस्तावेज बना लूं?
मां, जब भी आपसे बात होती है, आप मेरा सब हाल पूछ लेती हो, लेकिन मेरे बार-बार पूछने पर भी अपना हाल-चाल क्यूं बताना भूल जाती हो, शिकायत है यह?
मां, मैंने आपके मजबूत कांधे देखे हंै। परिवार के हर दु:ख को मैंने आपको अपने आंचल में दुबकाते देखा है, और आसमान से भी बड़ा आपके आंचल को ही हम सभी की खुशीयों को पनाह देते भी? कदम-दर-कदम आप हमारे लिए परेशानी से लड़ती रहीं। तमाम रातें अपनी नींद खो कर, मुझे लोरी सुना सुलाती रहीं। झाड़ू बुहारते हुये कचरे की तरह मेरे डर / संशय को मेरे मन से आप बुहारती रहीं, ताकि मैं नेक राह पर चलते हुये जिंदगी की तमाम मुश्किलातों को आसानी से पार कर लूं। मेरी हर सफलता पर मुझसे ज्यादा आप ही खुश दिखीं, और असफलता पर मुझसे ज्यादा गमगीन भी? जिंदगी में तमाम लोग आये और चले गये, लेकिन आप हर मौसम में मेरे साथ खड़ी दिखी, इतना स्नेह, इतना प्रेम, इतनी दुआ आपसे ही मिल सकती है या पा सकती हूँ मां।
मां, कोशिश करूंगी कि जाने-अनजाने मुझसे कभी ऐसी कोई गलती न हो जाये, जो आपको पीड़ा पहुंचाये और कभी अतीत में ऐसा हुआ हो तो क्षमा कर देना।
मां... बातें... बहुत हैं, बहुत कुछ लिखना चाहती हूं लेकिन आंखों में आपका अक्स उभर चला है, आपकी तमाम यादों से मेरी आंखें नम हो चली है, सो यह अक्षर अब धुंधले हो चले हैं, लिख पाना मुश्किल है। साथ ही यह बूंदे भी कहीं कागज पर टपक कर अक्षरों को गीला करती यह नमीं आपसे  मेरी भावनाओं की चुगली न कर बैठे, डरती हूं?
सो... अपने विचारों को विराम दे रही हूं?
मां, अपना ख्याल मेरी यादों से ज्यादा रखना, दवा समय पर लेती रहना, जल्द आने की कोशिश करूंगी।

आपकी बेटी
कनक।

हम तो मजबूर हैं दीदी...

कोमल

गालियां देते हैं...। आम लोगों को डराते धमकाते हैं किसी को कुछ भी बोल
देते हैं। ऐसे शब्द इस्तेमाल करते हैं कि मानो किसी ने पिघला हुआ शीशा
कानों में डाल दिया हो, वो किन्नर है। चमकती धूप में डार्क मेकअप के साथ
चेहरा और लाल सुर्ख हो जाता है। वो बदतमीजी करते हैं। लोगों का फायदा
उठाते हैं। कहीं कहीं तो यह भी कहा जाता है कि वे लोगों को अवैध रूप से
किन्नर भी बनाते है चंदे के नाम पर पैसे बटोरते हैं। पर वो इस हाल में
क्यों हैं? ऐसा कोई सोचना भी नहीं चाहता। हमारे समाज में जानवरों के भी
रक्षक हैं परन्तु नर और नारी से परे इस जाति का हमारे सभ्य समाज में कोई
स्थान नहीं और ना कोई अधिकार। एक तरह से जो उन्हें समाज से मिला है वही
वापस कर रहे हैं। उनकी खीज जायज है। ये सभ्य समाज से काट दिए गए लोग हैं
जबकि इनको जन्म देने वाले उनके माता पिता साधारण हैं। हांलांकि कहने को
तो समाज में बहुत कुछ सुधार हुआ है लेकिन बहुत कुछ होते हुए भी ये वर्ग
आज भी पिछड़ा हुआ है। हमारे देश में इनकी संख्या 5 से 10 के लगभग है।
जानवरों से बदतर जीवन जीने को मजबूर शायद यही समाज ऐसा है जिसे परिवार से
बाजार तक कोई काम नहीं दिया जाता। पद्मा खान की आपबीती भी इससे अलहदा
नहीं है। पद्मा भी उसको उसके ही समाज द्वारा दिया गया नाम है। एक पांच
साल की अबोध बच्ची जब उसे  ी और पुरुष में भेद भी नहीं पता था उसे बताया
गया कि वह सामान्य नहीं है। क्या बीती होगी उस पर.....। उसकी अपनी मां
जिसकी ममता भरी छांव की और समझाइश  की उस समय उसे ज्यादा आवश्यकता थी वही
उससे कटने लगी। वह बाल मन जो अभी यह सोचने के लिए तैयार नहीं था कि उसे
क्या हुआ है। वह भी परिवार में रहना चााहती थी पर अचानक जबरन ही उसे
अनजाने हाथों में सौंप दिया गया। उस क्षण ना मां की ममता बिलखी ना पिता
का प्यार उमड़ा। भेज दिया उसे इस जमाने के अनगिनत थपेड़े सहने के लिए।
लाचार पद्मा रोती रही, चिल्लाती रही मां बाबूजी मुझे नहीं जाना..... पर
समाज के दायरे बड़े ही क्रूर है। वो ऐसी संतान को अपने पास रखकर अपना
मजाक नहीं उड़वाना चाहते थे। सो पद्मा भी इन्हीं परिस्थितियों की भेंट
चढ़ गई। इसमें पद्मा का दोष क्या था। लेकिन परिथितियों के चक्र व उसके
अपनों की बेरुखी ने उसे अब तथाकथित अपने ही वर्ग में पहुंचा दिसा था। कई
दिनों तक वह यही सोचती रही कि शायद उसके मां बाबूजी उसे लेने आएंगे लेकिन
धीरे धीरे वो उम्मीद भी जाती रही। बचपन से ही वह उनके साथ नाचने गाने
जाने लगी, भीख मांगने में गाली देने में अश्लील बातें करने में उसे लाज
आती थी। बीतते समय के साथ परिस्थितियां उसके लिए अनुकूल होती गईं। अब उस
रंग ढंग में वह रच बस गई थी। संक्षिप्त शब्दों में कहें तो जीने के तरीके
सीख गई थी। परन्तु घर की याद उसकी स्मृतियों से धुंधली नहीं हो पाई। बचपन
की स्मृतियों में जाते हुए पद्मा की आंखों में आंसू आ जाते हैं। उसका
कहना है कि माता पिता और भाई बहनों की बहुत याद आती है। उनसे मिलने को मन
व्याकुल रहता है लेकिन घर एक बार छूटा तो छूट ही गया। होली दिवाली
घरवालों से फोन पर बात जरूर हो जाती है। बात करते हैं तो मन उनसे मिलने
के लिए व्याकुल हो उठता है। आंखें सजल हो उठती हैं।
कुछ महीने पहले पिताजी का निधन हो गया और यह खबर मिलने पर वहां जाने के
लिए मन बहुत तड़पा, परिवार का रिश्तेदारों के सामने मजाक बनता है। लरजती
आवाज में वह कहती है। जब तक पिताजी थे तो साल में एक बार मुझसे मिलने आते
थे और उसे साड़ी भेंट कर दुखी मन से वापस लौट जाते थे लेकिन अब यह
सिलसिला भी खत्म हो गया। कभी कभी लगता है कि ये ईश्वर का कैसा इंसाफ है,
ट्रेन में बाजार में चौराहे पर बस भीख मांगना ही जीवन हो गया है। आज उसकी
उम्र सत्ताइस वर्ष है। यूं तो वह अपने समाज के संस्कारों में पूरी तरह से
ढल चुकी है परन्तु आज भी वह समाज की परिधि के बाहर उन रिश्तों के लिए
तरसती है जो उससे निमर्मता से छीन लिए गए। मजबूर बेबस पद्मा बस यही कह
पाई कि हम तो मजबूर हैं दीदी ...। इसलिए ये कर्म करते हैं। वरना कौन
परिवार का सुख भोगना नहीं चाहता। हम दूसरों के बच्चे खिला सकते हैं उन्हे
आशीष दे सकते हैं पर हमारी गोद सूनी ही रह जाती है।

अफवाहों में दफन हो गई राजो...

कोमल

नारी में अदम्य क्षमता और मानसिक परिपक्वता है बावजूद इसके जिस चौराहे पर
वो आज खड़ी है वहां उसके चारों ओर गड्ढे ही गड्ढे व दुर्गम चट्टानें हैं।
राजाराम मोहन राय से लेकर दयानन्द सरस्वती तक के प्रयासों ने भले ही उसे
पर्दा प्रथा, सती प्रथा एवं देवदासी प्रथा से बाहर निकाल लिया हो, परंतु
घर की चारदीवारी लांघकर अपने  सम्मानित जीवन जीने की कल्पना करने वाली
नारी जीवनभर मानसिक तनाव व घुटन महसूस करती है। ऐसा नहीं है कि प्रत्येक
को समान पीड़ा का सामना करना होता है। कुछ चुप होकर सब सहकर रह जाती हंै
परंतु यदि घुटन है तो उसका कारण भी है। इसमें से बहुत से लोग समाज के
बदलने की दुहाई देते हैं और महिला व पुरुष को बराबर का दर्जा देने की बात
करते हैं। परंतु जब आवाज बुलंद करने की बात आती है तो कहीं न कहीं दोहरे
मापदण्डों वाले समाज का भय उन्हें कहीं पीछे धकेल देता है फिर वहां उसके
बनाए नियम व मानवीय मूल्यों का कोई औचित्य नहीं रह जाता। राजो (राजेश्वरी
पुरी, बांदा) की पीड़ा कहीं तक इन बातों की पुष्टि करती है। राजो आधुनिक
युग की कुछ खुले परंतु अन्तर्मुखी विचारों वाली युवती थी। उसके बात करने
व उसके  पहनावे से उसके अच्छे संस्कारों का पता चलता था। इंजीनियरिंग की
डिग्री के साथ ही एक मल्टीनेशनल कंपनी में उसका प्लेसमेंट हो गया। अपनी
काबिलियत की वजह से ही शीघ्र ही उसका प्रमोशन भी हो गया। ज्यादा लोगों से
बात करना या यूं कहें गासिप करना उसे पसंद ना था। उसकी यही बात कुछ लोगों
को अखरती थी। इतनी कम उम्र में इतनी बड़ी पोस्ट ये भी एक कारण था कि उसके
कुछ वरिष्ठ सहकर्मी उससे चिढऩे लगे और उसे परेशान करने के मौके ढूंढने
लगे। यहां अगर हम ये कहें कि अपनी खुशी से कोई खुश नहीं होता बल्कि
दूसरों की खुशियां दु:खी कर देती हैं तो गलत नहीं होगा। राजो के साथ भी
वही हुआ। उसकी योग्यता से जलने वालों ने अपनी चिढ़ व मनोरंजन के लिए उसके
सहकर्मी के साथ उसके पेशेवर रिश्ते के अतिरिक्त कुछ अन्य सूत्रों के
पनपने की अफवाहें उड़ाना शुरू कर दिया। हालांकि अफवाहों का कोई वजूद नहीं
होता परंतु जब फैलती हैं तो जंगल की आग की तरह फैलती हैं। उड़ते-उड़ते ये
खबर उन दोनों के कानों तक भी पहुंची। दोनों ने बात करना भी बंद कर दिया।
लेकिन इस पर भी मामले को और तूल दिया गया। जब बात दूसरों की होती है तब
हमारे पास उनके लिए ढेरों सलाह होती हैं पर जहां बात अपनी आती है तो
व्यक्ति क्या करे क्या ना करे की स्थिति में आ जाता है। राजो की
मन:स्थिति धीरे-धीरे खराब होने लगी। कितनी बार ही उसने अपनी सफाई देने की
कोशिश की पर हर बार वह अफवाहों के और गहरे गर्त में उतरती गई। उसकी शादी
टूट गई। जब कभी आवाज बुलंद करने की कोशिश की तो उसके बुरे चरित्र का
हवाला देकर उसे वहीं रोक दिया गया। परिवार भी कहीं तक उसको दोषी मानने
लगा। राजो अंदर ही अंदर घुटती गई। किससे क्या कहे, क्या करे जैसै अंदर ही
अंदर वह शीतयुद्ध को झेल रही थी। उसने ऑफिस जाना लोगों से मिलना-जुलना
बंद कर दिया। बात इतनी बढ़ गई कि रिश्तेदार तक राजो के चरित्र पर प्रश्र
चिन्ह लगाने लगे। समाज, परिवार, कार्यस्थल सभी कुछ तो उसके विरुद्ध हो
गया। मन ही मन अपनी काबिलियत को कोसती राजो धीरे-धीरे चुप होती गई और एक
दिन ऐसा आया कि चुप्पी और घुटन के चलते वह अपना मानसिक संतुलन खो बैठी।
क्या किसी ने सोचा था कि एक छोटी सी चिंगारी किसी का पूरा जीवन समाप्त कर
सकती है। क्या किसी को आगे बढऩे का, काबिलियत दिखने का, अपनी प्रतिभाओं
का दोहन करने का कोई अधिकार नहीं.........। या केवल मात्र इसलिए कि उसके
प्रतिस्पर्धी योग्य नहीं थे उसे भी अयोग्य ही बन जाना चाहिए था अथवा उसका
दोष केवल इतना भर था कि वह एक स्त्री थी....   यहां फिर से हम कह सकते
हैं कि केवल अफवाहें इतना सब कैसे कर सकती हैं, पर आप ही सोचिए कि यदि
बात चरित्र की आए तो समाज, परिवार आदि क्या सुनेगा और क्या चुनेगा। राजो,
शीला या मुन्नी तो नहीं थी जिसे बदनाम होने से कोई फर्क नहीं पड़ता। ना
ही उसे अपशब्दों की भाषा आती थी। इसलिए उसका जीवन गहरे अंधेरे में घिर
गया। हर ओर से तिरस्कार और घृणा का पात्र बनती राजो आज भी कसूरवारों की
तरह पागलखाने में अपने दिन व्यतीत कर रही है। उस तथाकथित  समाज का
शुक्रिया जिसने राजो को डरना, चुप रहना सिखाया। वरना शायद आज वो पागलखाने
में ना होकर सम्मान का जीवन जीती और उसके प्रतिस्पर्धियों के लिए
अयोग्यता की कसौटियंा और खरी हो जाती। यहां हमारा उद्देश्य किसी को
समझाना नहीं वरन एक प्रार्थना करना है कि आपके आसपास भी यदि किसी राजो के
साथ ऐसी स्थिति पनप रही है तो कृपया उसको पागलखाने का रास्ता दिखाने के
भागीदार न बनें।
वो चुप्पी थी जो कह ना सकी
चुप अधरों को आंखों ने किया
फिर खेल हुआ तिनका-तिनका
उन सपनों को भी सोख लिया।

परित्याक्ता

कोमल वर्मा


खबरदार, जो तुमने मेरे सामने अपनी जुबान खोली...। अपनी रौबिली आवाज में
गरजते हुये हार्दिक ने मुझसे कहा। मैं उनकी आवाज सुन सन्न रह गयी, समझ
नहीं आया मैनें ऐसा क्या कर दिया? लडऩे की हद तक बात को आगे बढ़ाते हुये
मेरी जिन्दगी की तरह ही कमरा भी अस्त व्यस्त सा करते हुये वह कहने लगे कि
आज दो पैसे क्या कमाने लग गयी, अपने आत्मसम्मान का ढिंढोरा पीटने लगी है,
याद रख मैं जब तक जिन्दा हूँ तब तक ही तुम्हारा अस्तित्व और मान सम्मान
है, जिस दिन मैं मर गया न तो लोग तुम्हें अपने अच्छे समय में तो क्या
बुरे वक्त में भी अपनी देहरी पर देखना पसंद नहीं करेंगे। परित्याक्ता
कहलाओगी... परित्याक्ता...।
मैं अपने काम पर जाने के पहले घर के काम निपटाते हुये, भावशून्य सी होकर
हार्दिक को देखती जा रही थी, लगा आंखों के पोर जैसे उसके ताने को आंसू की
शक्ल में बहाकर, मेरे गालों पर मेरे आत्मसम्मान की लालिमा को सजाये रखना
चाहते हैं? आंचल के कोर से उसके ताने को समेटते हुये मैं सोचने लगी कि
मैंने आखिर ऐसा क्या कह दिया जो वह सुबह-सबेरे इतनी बातें मुझे सुना
बैठे। अपनी गुम हुयी पैंन्सिल खोजती बेटी की आवाज सुन कर मन हुआ कि यह
पैंन्सिल खोज कर मैं अपना बचपन फिर लिख लूं, जिससे मेरा वह अतीत वापस लौट
आए जब पापा की डांट खाकर मैं मां का आंचल ओढ़ इस जहान में खुद को
सुरक्षित समझ लेती थी।
उफ् ..., पापा भी तो मां से अक्सर ऐसा ही व्यवहार करते थे, पर उनके चेहरे
पर मैनें कभी सिकन नहीं देखी। तो क्या मैं भी अपने बच्चों की खातिर
तिल-तिल यह अपमान सहती रहूँ? क्या मैं भी अपनी माँ का अक्स बन उनके ही
पदचिन्हों पर चलूँ। क्या मैं मान लूं कि आत्मनिर्भरता का आसमान चुनने और
बुनने के बावजूद मेरे खुद का कोई वजूद कभी अस्तित्व में नहीं आयेगा, बचपन
में पिता, यौवन में पति और जीवन के सांझ में बच्चों के आसरे ही मुझे रहना
होगा? समझ नहीं पा रही हूँ कि आत्मनिर्भर होने के बावजूद मेरे खुद का
वजूद क्यों नहीं है, क्या सभ्य जीवन जीने का मुझे अधिकार नहीं है?
मैं सोचने लगी कि मां की तरह मैं सब कुछ सह लूं तो कल मेरी बेटी को भी
यही सब कुछ सहन करना पड़ेगा? यदि आज मैंने इसका प्रतिकार नहीं किया तो कल
मेरी बेटी भी इसी का हिस्सा हो जाएगी। ... नहीं ऐसे में जीवित नहीं रह
पाऊँगी मैं, आत्मग्लानि के साथ कैसे जिन्दा रह पाउंगी? खुद से ही पूछ
बैठी।
तभी... दरवाजे पर हलचल हुयी, पुष्पाबाई आ गयी थी।
अपने तमाम सवालों की पोटली समेटते हुये मैनें पुष्पाबाई से पूछ लिया, आज
देर कैसे हो गयी?
बीबी जी..., कह कर वह कुछ सोचने लगी।
उसका चेहरा पढ़ मैने कहा क्या सोच रही हो?
अरे बीबी जी मत पूछो, वो बिरजू  है न मेरा घरवाला, मैंने उसे सबक सिखा
दिया, रोज-रोज की चिक-चिक से तंग आ गयी थी मैं, टाइम पे घर का सारा काम
निबटा दूंगी का मुझे भरोसा दिलाते हुये वह आगे कुछ कह पाती।
इससे पहले मैंने पुष्पा की ओर देखते हुये... पूछ लिया, क्या किया तुमने?
...अरे बीवी जी, नलके के नीचे, अपनी आत्मनिर्भरता की तरह बरतन चमकाते
हुये वह कहने लगी कि वो मेरे को रोज दारु पीकर बिना बात के मारता, रोज घर
से बाहर निकाल देता, मुहल्ले वालों के सामने भद्दी-भद्दी गालियां बकता,
आखिर मेरा भी तो कोई आत्मसम्मान है? मैं काम करके पैसे न जोड़ू तो उसके
बच्चों को कौन पालेगा? बीवी जी, पुष्पाबाई ने आगे कहा घर का सारा काम भी
करूँ फिर बच्चों और सारे मुहल्ले वालों के सामने उसकी मार खाऊँ, मेरी ननद
और सास भी कुछ नहीं कहती, क्या मैं जानवर हूँ, चैन से रोटी भी नहीं खाने
देता...।
बर्तनों से भर रही टोकरी के बीच उसकी वेदना और दर्द की आवाज सुस्पष्ट
सुनाई दे रही थी, मुझे ऐसा लग रहा था कि जैसे पुष्पा अपनी नहीं मेरी आप
बीती सुनाने बैठ गई हो?
क्या सारी औरतें यह सब सहन करती हैं जैसे मेरे अनसुने सवालों के बीच
पुष्पा ने झाड़ू उठाई और लगाने लगी पर वह लगातार बोले जा रही थी, लगा
जैसे वह बीते वर्षो में कतरा-कतरा यत्र-तत्र बिखरे अपने आत्मसम्मान को
बटोर लेना चाहती हो?
कचरा बटोरते हुये जैसे लगा आज उसने खुद को जीत लिया हो? आपको पता है बीवी
जी, मैंने आज उसके खिलाफ पुलिस में शिकायत कर दी। पुलिस उसे लेकर गयी,
मुझे नहीं परवाह अपने मांग के सिन्दूर की, जो पति अपनी पत्नी को जानवर
ज्यादा न समझे, भावना की कोई कद्र न करे, अधिकार के बोझ तले जिम्मेदारी
रोज-रोज दम तोड़े वो पति कहलाने लायक कैसे हो सकता है?
आज पुष्पा को क्या हो गया था? कल तक सूजा मुंह लेकर आती पुष्पा का दर्द
अनकहा ही रह जाता था,चेहरा जरुर इसकी चुगली करते थे कि उसके साथ अमानुषिक
व्यवहार हुआ है, पर आज जैसे उसके चेहरे पर दुर्गा की साक्षात् प्रतिकृति
दृष्टव्य हो रही थी।
बीवी जी बच्चों को मैं पाल लूंगी, कम से कम मेरी बेटी तो सुखी रहेगी। अगर
मैं ऐसा नहीं करती तो मेरी बेटियां भी तो मेरा अनुसरण करती?
पुष्पा के इस रौद्र रुप को देख मैं सहम गई, मैंने अपनी बेटी नेहा को अपनी
बाहों में कसकर भींच लिया। सोचने लगी पुष्पा इस दरिन्दगी से  निजात पा भी
जाए पर क्या खुद को दो कुलों की लाज मान गर्व के बीच मुझमें इतनी हिम्मत
है कि कोई कदम उठा सकूं?
बिदायी रस्मों के दरम्यां मुझसे मां ने यही पूछा था। हार्दिक मुझे कब
समझेंगे। क्या इनका अहम् मेरे आत्मसम्मान से ज्यादा है।
मन कर रहा था हार्दिक से अभी बात करूँ, लगा पुष्पा की बातों का मुझ पर
असर हो चला था। इस बीच पुष्पा अपना काम निबटा कर चली गयी थी। पुष्पा का
आत्मसम्मान मेरे मन की गहराई तक उतर गया था। कहीं न कहीं मैं नेेहा को
लेकर परेशान हो उठी थी, हालांकि अभी वह बस पांच वर्ष की ही तो थी?
शाम के सात बज चले थे, हार्दिक के भी आने का समय हो गया था, मैं बच्चों
को पढ़ाकर उठी और मशीन की तरह किचिन में लग गयी लेकिन अभी भी पुष्पा की
बातें रह-रह याद आ रही थी।
जब से मेरी शादी हुई है शायद तब से ही हर क्षण मैं भी तो अपमानित होती
रही हूं। स्कूल में टीचिंग, ट्यूशन, घर एवं पति के बीच पिसती ही तो आयी
हूं। क्या आज मेरे अन्दर का ज्वालामुखी फटने को था? छह साल के वैवाहिक
जीवन मैं उसे कौन सा सुख मिला, यह भीे सोचना पड़ता है। खुद को भूलकर
घर-परिवार को पाला, सारी तनख्वाह पति के हाथों में देने के बावजूद भी
मुझे अपमानित होना पड़ता है? आज चूल्हे की लौ में सोने की तरह मेरा
आत्मसम्मान भी तप रहा था।
हार्दिक से आस करुँ कि वे मुझेे कभी समझें, जिन्दगी भर इस तपस्या में खुद
को मिटा दूँ और क्या मैं नेेहा के लिए यह सजा कबूल कर लूं।
सावित्री... सावित्री... कहाँ हो?
घर में घुसते हुये हार्दिक ने कहा।
पुष्पा द्वारा सुलगाये गये तमाम सवालों को चाय का पानी चूल्हे पर रखने के
बहाने बुझाते हुये मैने सोचा भी नहीं था कि हार्दिक सोफे पर बैठ उल्हाना
दे रहे होंगे, क्या करती रहती हो दिनभर, तुमसे तो एक कप चाय भी समय से
नहीं बन पाती है। मुझे देखते ही उन्होनें कहा जल्दी चाय लाओ
ज...ज..जी. लाती हूं। जैैसे लगा शब्द गले में बंध से गये हों?
उल्टे पैर रसोई में जाकर चाय लाकर सेन्टर टेबिल पर रखते हुये मैंने कहा ये लीजिए।
हाँ ठीक है (चाय की चुस्की लेने के लिये कप उठाते हुये) हार्दिक ने पूछा
तुम्हारी सैलरी कहां है, घर की किश्त जमा करनी है।
जी... वो अलमारी में रख दी है।
मेरे जबाब से झल्लाते हुये उन्होंने कहा, हाँ-हाँ ठीक है। चन्द रुपयों पर
ऐंठ मत दिखलाओ और सुनो कल माँ, बड़़ी जीजी और जीजाजी आ रहे हैं। अपना काम
जल्द खत्म कर, उनको लेने चली जाना ध्यान रहे कोई गलती ना हो। मेरे कपड़े
पर प्रेस हुए की नहीं?
(मैं सोच में डूब गयी)।
सावित्री... सावित्री.. सावित्री ,
जी...जी... क्या हुआ,
ाजकल तुम्हारे कान कहाँ रहते हैं? तुनकते हुये हार्दिक ने पूछा।
जी... अभी तक घर का राशन नहीं आया है?
यह सुन हार्दिक एक झटके से उठ खड़ा हुआ और मेरे मुंह पर एक तमाचा जड़
दिया। इतना काम नहीं होता तुमसे क्या करती हो पूरा दिन। बस खा-पीकर सोना।
तंग आ गया हूँ मैं। पता नहीं किस गंवार से पाला पड़ा है।
मुझे कोई आश्चर्य नहीं हुआ, क्योंकि यह तो रोज का ही काम था, बस उसकी
कड़वी यादों में एक पन्ना और शामिल हो गया। उस रात मुझे  नींद नहीं आयी।
शायद जिन्दगी का एक अहम फैसला जल्द लेना था। जिन्दगी तराजू के दो पलड़ों
में थी या तो आत्मसम्मान या पति...। पर माँ ने कहा था कि में दो कुलों की
लाज हू। पर क्या मेरा अपना कोई जीवन नहीं है, लेकिन माता-पिता की बदनामी,
बुरे संस्कारों की दुहाई...। नहीं मैं नेहा को कमजोर नहीं कर सकती मेरी
नन्हीं नेेहा सूखे पत्तों का सा जीवन नहीं जियेगी।
रोज की तरह सुबह का सूरज चढ़ा, मैंने आज भी शक्ति की आराधना कर, शक्ति
में अपनी अटूट आस्था को प्रतिबिम्बत होते देखा, दूधिया की देरी की वजह से
चाय में हुयी देरी को लेकर हार्दिक का चिल्लाना शुरू हो गया? पर अब मेरे
अन्दर की शक्ति ने मुझे मेरी आत्मग्लानि से बाहर निकाल दिया था? अब मुझे
हार्दिक की आवाज की न परवाह थी ऐर न ही उस आवाज का डर, जो फिछले कई वर्षो
से मुझे डराता रहा था। हार्दिक बिस्तर से उठकर मुझको मारने की मुद्रा में
आये ही थे कि मेरे अन्दर की पुष्पा जो शक्ति बन चली थी ने आगो बढ़ कर
हार्दिक का हाथ वहीं रोक दिया।
अब मैं तुम्हारी पत्नी नहीं, सिर्फ नेहा की माँ हूँ। मैंने अपना सामान
पैक करते हुए हार्दिक से कहा, मैं जा रही हूं। कोई और नौकरानी ढूंढ लेना
जो तुम्हारी मार खाने के साथ तुम्हारा ख्याल भी रखे। अब मुझे परित्याक्ता
कहलाने का कोई अफसोस नहीं। मैं अपनी उम्मीदों पर खरी उतरी पर अफसोस  आप
एक जानवर की हैसियत से ऊपर नहीं उठ पाए। गुडबॉय... हार्दिक। सावित्री ने
नेहा को लिया और अपना सामान उठाकर, बिना पीछे देखे घर की देहरी लांघ,
खुले और अन्नत आकाश में आ गयी थी। आज पुष्पा की तरह वह भी आत्मसम्मान की
लड़ाई जीत चुकी थी। हार्दिक नि:शब्द सावित्री को ओझल होते हुये देखे जा
रहा था।