रविवार, अप्रैल 29, 2012

शब्द नहीं


अभिराम है जीवन में अभिव्यक्ति।
न जाने क्यूं फिर भी यह व्यक्त नहीं।

तुम्हारे लिए अनुराग है नैनों में मेरे,
मगर मेरे होठों पर कोई शब्द नहीं।

इस धोखे की संक्षिप्तता से,
दिल मेरा प्रेम से विरक्त नहीं।


पल-प्रतिपल साया सा चाहा तुमको,
रोशनी  की  दिल में  हुकूमत नहीं।

प्यार की डोर से बुने जो रिश्ते मैंने,
क्यूं तेरे दिल में ऐसे जज्बात नहीं।

  • कोमल वर्मा  ‘कनक’

    गुरुवार, अप्रैल 19, 2012

    जुगनूओं का कारोबार है


    यह कैसा शहर है, न रात, न दोपहर है।
    चांद  तन्हा है,  धूप का भी यही हश्र है।

    इश्क से रूह का रिश्ता जुदा  है यहां,
    हर महबूब फिदा नए महबूब पर है।

    जिस्म की  सीढ़ी से उतरता है रंग सुनहरा,
    धूप के टुकड़े से मरहूम जहां आंगन हर है।

    आंखों  में उमड़ता  है दर्द  का सैलाब,
    और जिस्म पर जख्मों की भरमार है।


    भावनाओं का मोल नहीं, रोज होती तार-तार,
    अंधेरा है  चारों सूं,  जुगनूओं  का कारोबार है।
    • कोमल वर्मा कनक

    शनिवार, अप्रैल 14, 2012

    तुम भी साथ नही


    क्या करें हम शिकायत किसी से, खुदगर्ज जमाना है।
    जो महसूसे न दर्द,  क्यूं उसे अपना दर्द दिखलाना है।

    मुझको अपनी ही चीखों का शोर सुनाई देता है अक्सर,
    खोते-खोते जान लिया अब, उसको भी खो जाना है।

    मुठ्ठी में चिंगारी और जख्मों की आहट सुनी मैंने,
    कैसी जोड़ी प्रीत तुझसे , जो नश्तर सा चुभ जाना है।

    सूनी राहें, मंजिल अंजानी और तुम भी साथ नहीं,
    अपनापन पाने की चाह में मुझको चलते जाना है।

    अंजाम  की  फ्रिक  में आगाज की वेदना सही मैंने,
    पुरानी उम्मीदें छोड़नी हैं, अब नए सपने  देखना है।

    • कोमल वर्मा  ‘कनक’

    शनिवार, अप्रैल 07, 2012

    प्रीत से पोषित हो मन



    नवीन है प्रेम मेरा, दिल अधिकार चाहे।
    और अब कलियों पर है भंवरे मंडराए।
    रस्म नई है धरा की, पर क्षितिज नहीं,
    आओ हम गगन-धरा सा मिल जाएं।

    चाहा मैंने रच लूं अपने जीवन का गौरव,
    रचने में इतिहास, मुझको विश्वास नहीं।
    जीवन के शब्द सिमट जाएं पन्नों में,
    मुझको तो रही कभी ऐसी आस नहीं।


    जब मिलना हो तुमको, मुझसे इस दुनिया में,
    सदा करना तुम, सौम्य प्रणय अनुकरण।
    फिर रीत का न करना उद्भेदन तुम,
    प्रीत से पोषित हो मन, निष्ठा का वरण।


    मन की नौका जल पर स्थिर है जब,
    क्यूं खिलवाड़ करें हम दोनों लहरों से।
    मंजिल पा ही लेंगे इक दिन हम अपनी,
    राहें लाख घिरीं हों चाहे पहरों से।

    • कोमल वर्मा कनक