शुक्रवार, मई 04, 2012

हो शिखर-सा सदृश्य


मुश्किल   में  हैं चाहत मेरी, अब नए पथ पर।
मन चाहे तुझको, वक्त कहे प्रणय का त्याग कर।

धीरज संग न टूटे रिश्ता मेरा, रहे तेरा साथ सदा,
आहिस्ता-आहिस्ता ही सही, पहुंचना है मंजिल पर।

क्यूं मौन रह गयी मैं! सुनकर बातें इस जमाने की,
रोक देती, टोक देती, न होती ग्लानी कोई, न कोई डर।


जब भी करूं मैं प्रीत, तो वह हो शिखर-सा सदृश्य,
महसूसे ही नहीं सब उसको, देख भी ले हर नजर।

त्याग से बड़ी नहीं कोई प्रीत माना मैंने ‘कनक’,
क्षितिज पर छाये वो, मेरे दिल में है जिसका घर।

  • कोमल वर्मा  ‘कनक’

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