शुक्रवार, मई 18, 2012

आंखें

सरेआम न जाने क्या-क्या कह जाती हैं आंखें।
दिल की तमाम  हसरतें बया कर जाती हैं आंखें।

आंखों में सजाया है तुझको, पलकों में छिपाया,
टीस उठे दिल में, तब दवा हो जाती हैं आंखें।

जिधर देखा, नित्य बदलता मौसम देखा मैंने,
कभी पतझड़ तो कभी सावन हो जाती हैं आंखें।

उसकी चाहत को कोई आयाम न दे पायी मैं,
कुछ पल दोस्ती का साथ निभा जाती हैं आंखें।

तमाम स्याह जख्म जिस्म पर किसको दिखलाएं,
दवा बन जाती है जब जख्म सहलाती हैं आंखें।

  •  कोमल वर्मा ‘कनक’


शनिवार, मई 12, 2012

मेरा चेहरा तू पढ़ लेती...



ओ... मां मुझे बतला, तू चुप-चुप क्यूं रहती है।
दर्द छिपाकर तमाम, तू चुपचाप क्यूं सहती है।

कभी धरा सी मौन होती, कभी बन जाती समन्दर,
मिले खुशी मुझको,एक श्वांस में पर्वत चढ़ जाती है।

मेरा चेहरा तू पढ़ लेती, तमाम खुशियां गढ़ देती,
मोहताज नहीं शब्दों की फिर जिह्वा क्यूं ताकती है।

जब भी तेरा नाम लिया, बाधाओं को पार किया,
मेरे दु:ख चुरा लेती और खुशियां मुझको दे देती है।

है ममता हर पग पर, प्रथम गुरु से प्रथम मित्र तक,
हर बंधन में, हर रिश्ते में जब तू ढ़ल जाती है।

आंचल की अनुभूति से, तू अन्तर्मन सहलाए,
इक मीठा-सा अहसास तू हरपल दिलाती है।

मेरी पलकोंं के ख्वाबों को अपनाया तुमने, लेकिन,
अपनी आंखों को फिर क्यूं तू भीगा रहने देती है।

  • कोमल वर्मा ‘कनक’

शुक्रवार, मई 04, 2012

हो शिखर-सा सदृश्य


मुश्किल   में  हैं चाहत मेरी, अब नए पथ पर।
मन चाहे तुझको, वक्त कहे प्रणय का त्याग कर।

धीरज संग न टूटे रिश्ता मेरा, रहे तेरा साथ सदा,
आहिस्ता-आहिस्ता ही सही, पहुंचना है मंजिल पर।

क्यूं मौन रह गयी मैं! सुनकर बातें इस जमाने की,
रोक देती, टोक देती, न होती ग्लानी कोई, न कोई डर।


जब भी करूं मैं प्रीत, तो वह हो शिखर-सा सदृश्य,
महसूसे ही नहीं सब उसको, देख भी ले हर नजर।

त्याग से बड़ी नहीं कोई प्रीत माना मैंने ‘कनक’,
क्षितिज पर छाये वो, मेरे दिल में है जिसका घर।

  • कोमल वर्मा  ‘कनक’