ओ... मां मुझे बतला, तू चुप-चुप क्यूं रहती है।
दर्द छिपाकर तमाम, तू चुपचाप क्यूं सहती है।
कभी धरा सी मौन होती, कभी बन जाती समन्दर,
मिले खुशी मुझको,एक श्वांस में पर्वत चढ़ जाती है।
मेरा चेहरा तू पढ़ लेती, तमाम खुशियां गढ़ देती,
मोहताज नहीं शब्दों की फिर जिह्वा क्यूं ताकती है।
जब भी तेरा नाम लिया, बाधाओं को पार किया,
मेरे दु:ख चुरा लेती और खुशियां मुझको दे देती है।
है ममता हर पग पर, प्रथम गुरु से प्रथम मित्र तक,
हर बंधन में, हर रिश्ते में जब तू ढ़ल जाती है।
आंचल की अनुभूति से, तू अन्तर्मन सहलाए,
इक मीठा-सा अहसास तू हरपल दिलाती है।
मेरी पलकोंं के ख्वाबों को अपनाया तुमने, लेकिन,
अपनी आंखों को फिर क्यूं तू भीगा रहने देती है।
- कोमल वर्मा ‘कनक’
कोमल जी ...प्यारी रचना ....सुन्दर मूल भाव ................
जवाब देंहटाएंइस पोस्ट के लिए आपका बहुत बहुत आभार - आपकी पोस्ट को शामिल किया गया है 'ब्लॉग बुलेटिन' पर - पधारें - और डालें एक नज़र - माँ दिवस विशेषांक - ब्लॉग बुलेटिन
जवाब देंहटाएंबहुत ही सुन्दर प्रस्तुति.
जवाब देंहटाएंअगर दुनिया मां नहीं होती तो हम किसी की दया पर
या
किसी की एक अनाथालय में होते !
संतप्रवर श्री चन्द्रप्रभ जी
आपको मातृदिवस की हार्दिक शुभकामनाएं
मातृदिवस की हार्दिक शुभकामनाएं.
जवाब देंहटाएंबहुत सुंदर भावों से सजी रचना......
जवाब देंहटाएंमातृदिवस की शुभकामनाएं.
अनु
माँ को शत शत नमन .....
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