मंगलवार, जून 07, 2011

खुशियां जरूरी है जिन्दगी के लिए......



कोमल वर्मा

मानव जीवन बड़ा जटिल होता है, मात्र पदार्थों के आश्रित होकर सुख शंाति की कल्पना नहीं की जा सकती। क्योंकि वह मशीन नहीं उसमें भावनाओं का झरना वहता है। जब वह पैदा होता है, तो उसके हाथ में कुछ नहीं होता, और जब वह यह दुनिया छोड़ता है तव भी उसके हाथ खाली ही होते है। परन्तु फिर भी अपने सम्र्पूण जीवनकाल में पूरी दुनिया समेट लेने का प्रयत्न करता है। मानव ही क्यों संसार का प्रत्येक जीव सुख एंव शंाति चाहता है। परन्तु हम राह पकड़ते है आह भरने की....। यदि हमने सोच लिया है कि सुख नसीब में नहीे है तो लाख कोशिश करें फिर भी असमंजस की धधकती ज्वाला हमें शीतल सुख के करीब कभी नहीं पहुंचने देगी। और फिर जीव अपने आस- पास का वातावरण स्वंय बनाता है। जैसे मच्छरो और खटमलों के मंडऱाते विस्तर पर कोई सो नहीे सकता, उसी प्रकार बिना सुख और भावनाओं के मनुष्य को एक एक पग धरने में कठिनाई होती है। संयम और संतोष धन अनमोल है। जो मानव को परिस्थितियों से लडऩा सिखाता है। झांसी की शांति सिन्हा ने इसी प्रकार परिथतियों से लडकर खुश रहकर व खुश रखकर जिन्दगी की गुत्थी को बड़ी आसानी से सुलझा दिया।
स्वभाव से हंसमुख शांति अति सामान्य परिवार से थी। उसके संम्पर्क में आया कोई भी व्यक्ति उसके स्वभाव से प्रभावित हुए बिना नहीं रहता था। घर व दोस्तों में वह सबकी चहेती थी। फिर भी हर माता पिता की तरह शांति के माता पिता को भी उसके विवाह की चिंता थी। लेकिन कहते है ना कोई किसी की किस्मत नहीे वूझ सकता, यह उसकी किस्मत ही थी कि उसके रूप रंग व गुणों से प्रभावित होकर उसके लिए एक अच्छे घर से रिश्ता भी आ गया। शादी के सुखद् सपने सजाए वह स्नातक होते होते वह मंत्रो व सात फेरों के साथ सात जन्मो के लिए संजीव से बंंध गयी। कहीं किसी को ससुराल अच्छा नहीं मिलता तो कहीं पति...। पर उसके साथ ऐसी कोई स्थिति नहीं थी। परिवार के सभी लोग बेेहद सज्जन थे। उसके हंसमुख स्वभाव ने शीघ्र ही सबको अपना कर लिया। अंकुर और राशि के जन्म के बाद तो जैसे उनकी खुशियंा जैसे पूरी हो गयी । लेकिन जहां खुशियां होती है वहां लोगो की नजर लगना भी स्वाभाविक ही है या यू कहें कि सुख का समय कब पंख लगा के उड़ जाता है पता ही नहीं चलता । एक शाम दफ्तर से बापस आते समय संजीव एक दुर्घटना का शिकार हो गए। और उनका आधा शरीर लकवाग्रस्थ हो गया। यह जिन्दगी का एक ऐसा मोड़ था जिससे कि एक पल में ही परिवार की खुशियों ने किनारा कर लिया। घर में मातम सा छा गया । संजीव की सेहत व घर के भविष्य को लेकर सब चिंतित रहने लगे । वह किस किस को समझाती। आखिर उसका दुख भी तो वही था। अभी शादी को केवल पांच वर्ष ही तो हुए थे। संजीव का भी हौसला गिरता ही जा रहा था। वे पहले से ज्यादा चिड़चिड़े और गंभीर हो गए थे। शायद उनका मनोबल जबाब दे रहा था। एकमात्र उनका वेतन ही पूरे परिवार का भरण करता था। दोनो बच्चे भी अभी वहुत छोटे थे। घर का खर्च, संजीव की सेहत, अंकुर और राशि का भविष्य व घर के बड़ो की देखभाल ने शांति को शीघ्र ही निर्णय लेने के लिए विवश कर दिया। उसने परिस्थतियों के अनुसार  स्वंय को तैयार कर लिया था। बहुत सोच विचार कर उसने अपने नौकरी के प्रस्ताव को सबके सामने रख दिया। युं भी सभी की निगाहे उस पर लगी थी। सबने हामी भर दी सिवाय संजीव के..............।  वे जरा भी नहीं चाहते थे कि शान्ति बाहर जाकर नौकरी करे। पारिवारिक जिम्मेदारियों एवं संजीव की मंशा समझते हुए शान्ति ने घर पर ही टिफिन सेंटर खेलने पर विचार किया। शुरूआती कठिनाइयों के बाद धीरे धीरे लोग शान्ति के स्वभाव से प्रभावित होने लगे। संजीव की दवाई, व्यायाम, मालिश, बच्चों की देखभाल सास ससुर एवं टिफिन सेंटर सभी जिम्मेदारियों को शांति ने बखूबी संभाल लिया। कभी किसी समस्या को लेकर उसके चेहरे पर शिकन तक न आती। शरीर में हरदम फुर्ती रहती जैसे हर काम के लिए हर वक्त तैयार हो। टिफिन सेंटर का काम अच्छा चल निकला। संजीव भी धीरे धीरे ठीक होने लगे थे। जो लोग शान्ति को जानते थे वो उसकी प्रशंसा करते न थकते थे। काम बहुत ज्यादा फैलने लगा। अब वह आफिस व समारोह में भी भेजे जाने लगे। शान्ति की मेहनत रंग लाई। पहले टिफिन, फिर केटरिंग और उसके बाद स्वयं का एक होटल। किसी ने सोचा भी न था कि जिन्दगी के उस दर्दनाक मोड़ से एक रास्ता खुशियों भरे रास्ते की ओर भी जाता है। बीस वर्ष में टिफिन सेंटर से होटल तक के सफर में शान्ति की मेहनत और मुस्कुराहट ने कभी उसका साथ ना छोड़ा और ना ही उसने  किसी को दुखी नहीं होने दिया। वह स्वयं तो हंसी साथ में सबको खुश रखा। शादी की पच्चीसवीं वर्षगांठ पर लोगों ने इनके सफल वैवाहिक जीवन और व्यवसाय में सफलता का राज पूछा तो उसका जवाब कुछ इस तरह था। सब संजीव का साथ है। उन्होंने दिन को रात कहा तो मैंने भी रात कहा। गुस्से को प्यार कहा तो मैंने भी वही समझा। जिन्दगी खुशियों के साथ कब यहां तक आ गई पता ही नहीं चला और फिर कौन सा दिन को रात कहने से वह रात में बदल जाता है। इतना सुनते ही सब हंस पड़े।
सच ही है खुशियां कहीं अन्यत्र नहीं अपने भीतर ही होती हैं। प्रदत्त साधन हमें ना सुख दे सकते हैं ना आनन्द। जीवन तो जीना होता है। यदि समस्याओं से घबराकर बैठ जाते हैं तो अपनों के सुख का अहसास खो देते हैं परन्तु शान्ति की तरह हंसते हंसाते जिन्दगी जीना और हर दुखद मोड़ पर संयम रखना ही सही मायनों में जीवन जीना होता है। दुनिया का व्यापार ही कुछ इस तरह का है  हम कभी सोच ही नहीं पाते कि हमारा सुख किसी बाहरी वस्तु या व्यक्ति का गुलाम नहीं है बाहर की परिस्थितियां तथा साधन मात्र उस आन्तरिक स्रोत से मेल कराने में ही सहायक होते हैं। विचार करने की बात है कि बाहर की दुनिया में तो कोई परिवर्तन नहीं हुआ फिर भला ऐसा क्या हो गया कि पहले वह सब दु:ख के सागर में डूब गये और फिर अचानक सुख के आसमान में उडऩे लगे। याद करें उपनिषद् वाणी, जो कहती है- 'अंयमात्मा ब्रह्मÓ ।

कोई घबराता है मौसिकी के लिए
कोई पी जाता है आशिकी के लिए
किसी का जुस्तजू है मोहलत की 
खुशियां जरूरी है जिन्दगी के लिए।

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