मंगलवार, जून 07, 2011

क्या विश्वास करना गलत है?



कोमल वर्मा


अनजानी सी दुनिया है किसके खोल में कौन छिपा बैठा है, किसकी मुस्कुराहट के पीछे क्या है कहा नहीं जा सकता। धोखे का तो नाम ही बुरा है, फिर भी यहां हर कदम पर धोखा है। किसी के साथ ख्वाब सजाना भी बेमानी है, क्योंकि हकीकत की दुनिया बहुत सीमित होती है और सपनों का दायरा असीमित....। इसलिए सपनों को बमुश्किल ही हकीकत की पनाह मिल पाती है। इंसानी फितरत को अनदेखा कर जब हम पूरे विश्वास के साथ किसी की परछाई बनकर चलने लगते हैं तो इसी विश्वास को हिस्सों में बंटने पर देर नहीं लगती है और फिर हम नियती को दोष देते हैं। पर दिल तो मासूम होता है पुन: किसी से मिलता है तो रिश्ते गढऩे लगता है फिर पहले धोखे को भूलकर नई चोट खाने के लिए तैयार हो जाता है। इस प्रकार मानवीय उलझनों के बेशुमार जंगल से गुजरते हुए एक न एक दिन वह बेचैनी भरा एकान्त हमारी जिंदगी में आ ही जाता है जब हम खामोशी से मन की मिट्टी को कुरेदते हैं और सोचते हैं उन रिश्तों के बारे में जो अचानक बदल जाते हैं। वे रिश्ते जो हमारी पृष्ठभूमि का अचल विश्वास बनकर पर्वत जैसे अविचल खड़े थे और दिल को अपनी उपस्थिति से आश्वस्त करते रहते थे। फिर यकायक क्या हो जाता है कि बिना किसी के कुछ कहे विश्वास के वो घरोंदे टूटकर बिखरने लगते हैं या हो सकता है कि हम ही किसी की चालों से अनभिज्ञ हों।
विश्वास की इन्हीं परतों में चित्रा दुबे (रीवा) का सच एक बारगी हमें अपने संबंधों के विषय में सोचने पर मजबूर करता है। रागनी और चित्रा पहली कक्षा से ही दोस्त थीं। स्नातक आते-आते दोनों की दोस्ती इतनी गहरी हो गई थी कि लोग उनकी दोस्ती की मिसाल देते थे। दोनों ही सहेलियां एक-दूसरे की प्रशंसा करते न थकतीं। एक का घर जैसे दूसरे का आंगन बन गया था। उन्हें देखकर ही नजर उतारने को सबका जी चाहता था। जो एक पहनता वही दूसरे को भाता। इतने लम्बे रिश्ते में कभी दोनों में बहस तक नहीं हुई। हर चीज का साझा होता था। इनके बीच में तो माता-पिता भी नहीं बोलते थे। दोनों के स्वभाव में भी अंतर था। देखने में दोनों ही सुंदर थीं। जहां एक ओर रागनी बड़बोली थी वहीं चित्रा शांत थी। पर इस पर भी बातें दोनों एक-दूसरे की मानते थे। उनके बीच कोई बात छिपती थी। स्नातक का द्वितीय वर्ष था, परीक्षाएं आने ही वाली थीं। चित्रा के हावभाव रागनी को बदले लगने लगे। क्यूंकि साथ बहुत पुराना था इसलिए इंसान आंखों की भाषा भी समझने लगता है। रागनी ने चित्रा से कुछ न पूछा। इससे पहले कि चित्रा उसे कुछ बता पाती, रागनी ने उसकी खामोशी का कारण पता लगा लिया। दोस्ती का रिश्ता ही ऐसा होता है, अबे जा... हट..., भूल जा...., चलते हैं यार.... से शुरू होता है और मन की बातें पढऩे लगता है कुछ भी, कहीं भी, दोस्त तो हर जगह तैयार रहते हैं। रागनी ने भी चित्रा के मन की बात पढ़ी और विकास को उसके सामने खड़ा कर दिया। चित्रा स्तब्ध रह गई क्योंकि उसने तो रागनी को बताया ही नहीं कि वह विकास को प्रेम करने लगी है। खैर चित्रा मन ही मन अपने ईश्वर को धन्यवाद दे रही थी कि उसने ऐसी दोस्ती पाई है फिर क्या था। चित्रा और विकास के घरवालों को मनाने की जिम्मेदारी भी रागनी ने ही ले ली। भले ही यह अन्तरजातीय विवाह था परंतु बेटी की खुशी और रागनी की समझाइश और कोशिशों के चलते सभी ने इस रिश्ते पर मोहर लगा दी। स्नातक अंतिम वर्ष की परीक्षा के तुरंत बाद दोनों का विवाह कर दिया गया। चित्रा इस समय स्वयं को सबसे ज्यादा खुशकिस्मत मान रही थी। ऐसी समझदार दोस्त और मनचाहा पति पाकर सपनों को पंख लग गए हों। आरंभ के कुछ समय में फिर बाद में विकास के साथ उसकी पोस्टिंग वाली जगह पर रहने चले गए सबकुछ एक ख्वाब सा था। विकास उसकी बहुत देखभाल करता था। वह हर छोटी से छोटी बात रागनी को बताती। यूं भी शादी से पहले से ही रागनी का विकास के घर आना जाना था। एक तरह से वह उन दोनों की कॉमन फ्रेंड भी थी। चित्रा और विकास के दिन बहुत अच्छे बीत रहे थे। चित्रा जितना विकास पर विश्वास करती थी उससें कहीं ज्यादा रागनी पर विश्वास करती थी। समय बीतता गया चित्रा को मां बनने का सौभाग्य भी प्राप्त हुआ। अब उसकी दुनिया पूरी हो चुकी थी। विकास का ध्यान धीरे-धीरे चित्रा से कटने लगा। चित्रा को लगा शायद ऑफिस में काम ज्यादा हो और सोचकर वो भी अपने बच्चे के साथ व्यस्त हो गई। कई बार उसने विकास की चिड़चिड़ाहट का कारण जानना चाहा पर विकास ने तबियत खराब का बहाना बनाकर टाल दिया। धीरे-धीरे स्थिति इतनी बिगड़ गई कि साथ रहते हुए भी दोनों के बीच एक लम्बी खिंच गई। विकास का रुख चित्रा की तरफ से और कड़ा होता गया। चित्रा की गृहस्थी को जाने किसकी नजर लगी थी। वह रोज रागनी को दर्द बताती उपाय मांगती रागनी उसे ढांढस बंधाती और संयम रखने को कहती। विकास की बेरुखी चित्रा को किसी अनजान आशंका से घेर रही थी। मुश्किलें बढ़ती जा रही थीं। चित्रा को विकास की बहुत फिक्र होने लगी थी परंतु संदेह की परतें इतनी भी कमजोर नहीं होती कि आंखें बंद करके बस तमाशबीन बना जाए। इसी संदेह के चलते चित्रा को पता चल गया कि विकास किसी अन्य औरत से मिलता है। उसने विकास को रंगे हाथ पकडऩे की सोची। एक दिन सुबह-सुबह वह विकास से बोली मुझे पन्द्रह दिन के लिए अपनी मां के घर जाना है। विकास ने सहमति से सिर हिला दिया। फिर क्या था चित्रा ने सामान उठाया और इसी शहर में कमरा लेकर विकास पर नजर रखने लगी। बेटे की जिम्मेदारी के लिए उसने मां को भी बुला लिया था। उसी दिन रात्रि में उसे पता चला कि वही औरत विकास के साथ इस घर में है। इन दिनों उसने रागनी को भी कुछ बताना ठीक न समझा। इस रात चित्रा दनदनाते हुए विकास के घर पहुंची और जो देखा उससे उसका हृदय लहूलुहान हो गया। रागनी और विकास चित्रा की हत्या की योजना बना रहे थे ताकि रागनी विकास से विवाह कर सके। चित्रा को एक पल उसके कानों और आंखों पर विश्वास न हुआ। वह उल्टे पांव वापस लौट आई। अब वह किसे दोष दे अपने पति को या अपनी अति विश्वासपात्र दोस्त रागनी को। उसका भरोसा छलनी हो चुका था।
आज की दुनिया में जहां अपने रिश्ते दगा दे जाते हैं वहां लोग गैरों पर विश्वास कर उन्हें अपने मन के करीब तो कर लेते हैं पर जब वे भी पीठ में छुरा घोंपें तो उनसें मानवीयता की कल्पना करना भी मुश्किल हो जाता है। चित्रा ने फिर कभी इस शहर की ओर भी नहीं देखा। जब रिश्तों में कड़वाहट आ जाती है तब एक लंबा अरसा गुजरने के बाद नफरत और क्रोध का आवेग सुस्थिर होने लगता है। भावविह्वल मन फिर छटपटाने लगता है उन्हीं छूटे हुए रिश्तों के लिए। दिल चाहता है टूट जाएं ये रिश्ते.........और हुआ भी यही दोनों के बीच तलाक की औपचारिकता के बाद बचा रिश्ते का धागा भी टूट गया। चित्रा फिर भी खुश है आज उसका बेटा डॉक्टर है और स्वयं एक प्रतिष्ठित स्कूल में शिक्षिका है। यदा-कदा दोस्तों से रागनी और विकास के बारे में पता लग जाता है दोनों आज भी अलग-अलग रहते हैं। शायद चित्रा को दिये धोखे ने रागनी में आत्मग्लानि भर दी थी। जो वह विकास से विवाह न कर पाई। जिसने चित्रा और विकास के रिश्ते की नींव रखी थी वही उसे निगल गई। दूसरी शादी का दबाव बनाते-बनाते उसने विकास और चित्रा को तो अलग करवा दिया पर स्वयं भी उसकी न हो पाई। किसी ने सच ही कहा है, जो दूसरों के लिए खाई खोदता है वह स्वयं को उसमें गिरने से नहीं बचा सकता।

कुछ बात नहीं, बस चोट लगी,
उन रिश्तों ने झुठला ही दिया,
पत्थर ने फिर शीशा तोड़ा,
और चूर-चूर विश्वास हुआ।

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