मंगलवार, जून 07, 2011

उनके आने से आई होली...


कोमल वर्मा

प्रेम की अनुभूति किसी भी एहसास से अलग होती है। कोई भी रिश्ता किसी भी कारण से क्यूं न बंधा हो उसका स्नेह आमंत्रण प्रत्येक हृदय को भावुक स्पर्श देता है और जब बात होली की आती है तो प्रेम उन रंगों में मिलकर और भी गहरा हो जाता है। शायर ही ऐसा कोई व्यक्ति हो जो प्रेम के रंगों में सरावोर नहीं होना चाहता है। होली के गीत भी मीत के आगमन की वाट जोहते दिखाई देते हैं। यहां मेरा कालम मुझे कुछ होली के मस्ती भरे वाक्यांश लिखने की उम्मीद करता है। परन्तु में अपनी संवेदनशीलता के समक्ष विवश है। मेरी कलम भी संवेदनाओं को ही उभार दे पाती है। सावित्री की व्यथा इस बात की साक्षी है। कई वर्षों से होली पर अपने पति के आने का इंतजार करती सावित्री को ये तो नहीं पता था कि उसका विवाह कब हुआ परन्तु उसने अपनी सखियों से यह अवश्य सुना था। कि होली के दिन प्रत्येक सुहागन अपने मीत के साथ ही होली खेलती थी। इसी आस में कि वे अब आएंगे, वह हर होली पर दरवाजे की चौखट लांघ के बैठ जाती कि शायद इस बार वे उससे होली खेलने अवश्य आएंगे और हर बार सांझ होते-होते उसका उतरा हुआ चेहरा उसके इंतजार के इतिहास क ा एक पन्ना और भर देता था। अब तो उसकी सारी सखियां भी अपने ससुराल जा चुकी थीं। वस वही अभागिन मायके के आंगन की धूल बनी हुई थी। हर बार होली पर उसका मन यही कहता कि काश...एक बार तो वे आते उन्हें एक बार ठीक से देख तो पाती....। बचपन के गुड्डे-गुड्डियों की शादी की भांति हुए उसके बालविवाह ने अब तक तो उसके पति की छवि भी धूमिल कर दी थी। क्या वह अब उसे पहचान पाएगी? क्या वो अपनी सखियों के कहे अनुसार सही मायनों में सुहागन बन पाएगी। इन्हीं स्मृतियों के साथ उसने अपने जीवन के पचास बसंत पार कर लिए। अब तो होली पर रंगों की चंचल पिचकारियों ने उसे आवाज देना भी बंद कर दिया था। शायद अब उसने इंतजार करना भी छोड़ दिया था और भाभियों के तीक्ष्ण ताने सहने की आदत भी डाल ली थी। हर होली की तरह इस बार उसने आंगन की ओर मुड़कर नहीं देखा और कमरे में बैठी कुछ गुनगुनाती कपड़े सिल रही थी कि तभी बाहर किसी की आवाज सुनायी दी। सारे मोहल्ले में जैसे भगदड़ मच गयी, वह दौड़कर बाहर आयी तो देखा एक व्यक्ति अधमरी हालत में उसकी चौखट पे पड़ा सावित्री सावित्री पुकार रहा था। अनजान व्यक्ति के मुख से अपना नाम सावित्री चौंक तो गयी थी। उसकी हालत देखते हुए सावित्री ने उसे अन्दर चारपाई पर लिटाया। उस व्यक्ति के हाथ लगातार प्रार्थना की मुद्रा में थे जैसे वह अपने किसी अपराध की क्षमायाचना कर रहा हो। दो पल के बाद भीड़ की छंटनी हुई। सावित्री ने पूछने के लिए होंठ हिलाए ही थे कि वह व्यक्ति बरबस ही बोल पड़ा..। ''सावित्री मुझे क्षमा करना मैं सतीश हूं तेरा पति, मैं भटक गया था। मैंने शहर जाकर दूसरा विवाह कर लिया था। परन्तु मैं उस आत्मग्लानि से कभी बाहर नहीं निकाल पाया। हम दोनों में रोज बहस होने लगी। मुझे टीबी हो गयी। मैं अपनी आत्मग्लानि में झुलसता गया। वह भी मुझे तलाक देकर इस हालत में छोड़ गयी। मुझे क्षमा कर दो सावित्री मैं इस काबिल तो नहीं, लेकिन यदि हो सके तो....। सावित्री स्तब्ध अपने किस्मत का नया रुख देख रही थी। उसके नेत्रों से प्रेम की  अविरल धारा फूट पड़ी। शायद आज ईश्वर को उस पर तरस आ गया। इसकी होली पूरी हो गयी। उसने पास पड़े गुलाल से दो मुट्ठी भरकर सतीश के गालों पर लगाया और बोली कुछ मत बोलिए आज ईश्वर ने मेरे इंतजार का कर्ज चुकाया है। मेरे लिए इतना भर काफी है कि आपने मुझे याद रखा। होली के अवसर पर ईश्वर ने उसे उसका सुहाग लौटा दिया था। अब वह  स्वयं में इतना गौरवान्वित हो रही थी उसे लग रहा था कि हर एक को जाकर बताये कि वह भी सुहागन है। उसके साथ उसका पति है।ÓÓपचास वर्ष बाद ही सही अब वह भी हर वर्ष होली मनाएगी।
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