रविवार, जून 05, 2011

अफवाहों में दफन हो गई राजो...

कोमल

नारी में अदम्य क्षमता और मानसिक परिपक्वता है बावजूद इसके जिस चौराहे पर
वो आज खड़ी है वहां उसके चारों ओर गड्ढे ही गड्ढे व दुर्गम चट्टानें हैं।
राजाराम मोहन राय से लेकर दयानन्द सरस्वती तक के प्रयासों ने भले ही उसे
पर्दा प्रथा, सती प्रथा एवं देवदासी प्रथा से बाहर निकाल लिया हो, परंतु
घर की चारदीवारी लांघकर अपने  सम्मानित जीवन जीने की कल्पना करने वाली
नारी जीवनभर मानसिक तनाव व घुटन महसूस करती है। ऐसा नहीं है कि प्रत्येक
को समान पीड़ा का सामना करना होता है। कुछ चुप होकर सब सहकर रह जाती हंै
परंतु यदि घुटन है तो उसका कारण भी है। इसमें से बहुत से लोग समाज के
बदलने की दुहाई देते हैं और महिला व पुरुष को बराबर का दर्जा देने की बात
करते हैं। परंतु जब आवाज बुलंद करने की बात आती है तो कहीं न कहीं दोहरे
मापदण्डों वाले समाज का भय उन्हें कहीं पीछे धकेल देता है फिर वहां उसके
बनाए नियम व मानवीय मूल्यों का कोई औचित्य नहीं रह जाता। राजो (राजेश्वरी
पुरी, बांदा) की पीड़ा कहीं तक इन बातों की पुष्टि करती है। राजो आधुनिक
युग की कुछ खुले परंतु अन्तर्मुखी विचारों वाली युवती थी। उसके बात करने
व उसके  पहनावे से उसके अच्छे संस्कारों का पता चलता था। इंजीनियरिंग की
डिग्री के साथ ही एक मल्टीनेशनल कंपनी में उसका प्लेसमेंट हो गया। अपनी
काबिलियत की वजह से ही शीघ्र ही उसका प्रमोशन भी हो गया। ज्यादा लोगों से
बात करना या यूं कहें गासिप करना उसे पसंद ना था। उसकी यही बात कुछ लोगों
को अखरती थी। इतनी कम उम्र में इतनी बड़ी पोस्ट ये भी एक कारण था कि उसके
कुछ वरिष्ठ सहकर्मी उससे चिढऩे लगे और उसे परेशान करने के मौके ढूंढने
लगे। यहां अगर हम ये कहें कि अपनी खुशी से कोई खुश नहीं होता बल्कि
दूसरों की खुशियां दु:खी कर देती हैं तो गलत नहीं होगा। राजो के साथ भी
वही हुआ। उसकी योग्यता से जलने वालों ने अपनी चिढ़ व मनोरंजन के लिए उसके
सहकर्मी के साथ उसके पेशेवर रिश्ते के अतिरिक्त कुछ अन्य सूत्रों के
पनपने की अफवाहें उड़ाना शुरू कर दिया। हालांकि अफवाहों का कोई वजूद नहीं
होता परंतु जब फैलती हैं तो जंगल की आग की तरह फैलती हैं। उड़ते-उड़ते ये
खबर उन दोनों के कानों तक भी पहुंची। दोनों ने बात करना भी बंद कर दिया।
लेकिन इस पर भी मामले को और तूल दिया गया। जब बात दूसरों की होती है तब
हमारे पास उनके लिए ढेरों सलाह होती हैं पर जहां बात अपनी आती है तो
व्यक्ति क्या करे क्या ना करे की स्थिति में आ जाता है। राजो की
मन:स्थिति धीरे-धीरे खराब होने लगी। कितनी बार ही उसने अपनी सफाई देने की
कोशिश की पर हर बार वह अफवाहों के और गहरे गर्त में उतरती गई। उसकी शादी
टूट गई। जब कभी आवाज बुलंद करने की कोशिश की तो उसके बुरे चरित्र का
हवाला देकर उसे वहीं रोक दिया गया। परिवार भी कहीं तक उसको दोषी मानने
लगा। राजो अंदर ही अंदर घुटती गई। किससे क्या कहे, क्या करे जैसै अंदर ही
अंदर वह शीतयुद्ध को झेल रही थी। उसने ऑफिस जाना लोगों से मिलना-जुलना
बंद कर दिया। बात इतनी बढ़ गई कि रिश्तेदार तक राजो के चरित्र पर प्रश्र
चिन्ह लगाने लगे। समाज, परिवार, कार्यस्थल सभी कुछ तो उसके विरुद्ध हो
गया। मन ही मन अपनी काबिलियत को कोसती राजो धीरे-धीरे चुप होती गई और एक
दिन ऐसा आया कि चुप्पी और घुटन के चलते वह अपना मानसिक संतुलन खो बैठी।
क्या किसी ने सोचा था कि एक छोटी सी चिंगारी किसी का पूरा जीवन समाप्त कर
सकती है। क्या किसी को आगे बढऩे का, काबिलियत दिखने का, अपनी प्रतिभाओं
का दोहन करने का कोई अधिकार नहीं.........। या केवल मात्र इसलिए कि उसके
प्रतिस्पर्धी योग्य नहीं थे उसे भी अयोग्य ही बन जाना चाहिए था अथवा उसका
दोष केवल इतना भर था कि वह एक स्त्री थी....   यहां फिर से हम कह सकते
हैं कि केवल अफवाहें इतना सब कैसे कर सकती हैं, पर आप ही सोचिए कि यदि
बात चरित्र की आए तो समाज, परिवार आदि क्या सुनेगा और क्या चुनेगा। राजो,
शीला या मुन्नी तो नहीं थी जिसे बदनाम होने से कोई फर्क नहीं पड़ता। ना
ही उसे अपशब्दों की भाषा आती थी। इसलिए उसका जीवन गहरे अंधेरे में घिर
गया। हर ओर से तिरस्कार और घृणा का पात्र बनती राजो आज भी कसूरवारों की
तरह पागलखाने में अपने दिन व्यतीत कर रही है। उस तथाकथित  समाज का
शुक्रिया जिसने राजो को डरना, चुप रहना सिखाया। वरना शायद आज वो पागलखाने
में ना होकर सम्मान का जीवन जीती और उसके प्रतिस्पर्धियों के लिए
अयोग्यता की कसौटियंा और खरी हो जाती। यहां हमारा उद्देश्य किसी को
समझाना नहीं वरन एक प्रार्थना करना है कि आपके आसपास भी यदि किसी राजो के
साथ ऐसी स्थिति पनप रही है तो कृपया उसको पागलखाने का रास्ता दिखाने के
भागीदार न बनें।
वो चुप्पी थी जो कह ना सकी
चुप अधरों को आंखों ने किया
फिर खेल हुआ तिनका-तिनका
उन सपनों को भी सोख लिया।

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