रविवार, जून 05, 2011

हम तो मजबूर हैं दीदी...

कोमल

गालियां देते हैं...। आम लोगों को डराते धमकाते हैं किसी को कुछ भी बोल
देते हैं। ऐसे शब्द इस्तेमाल करते हैं कि मानो किसी ने पिघला हुआ शीशा
कानों में डाल दिया हो, वो किन्नर है। चमकती धूप में डार्क मेकअप के साथ
चेहरा और लाल सुर्ख हो जाता है। वो बदतमीजी करते हैं। लोगों का फायदा
उठाते हैं। कहीं कहीं तो यह भी कहा जाता है कि वे लोगों को अवैध रूप से
किन्नर भी बनाते है चंदे के नाम पर पैसे बटोरते हैं। पर वो इस हाल में
क्यों हैं? ऐसा कोई सोचना भी नहीं चाहता। हमारे समाज में जानवरों के भी
रक्षक हैं परन्तु नर और नारी से परे इस जाति का हमारे सभ्य समाज में कोई
स्थान नहीं और ना कोई अधिकार। एक तरह से जो उन्हें समाज से मिला है वही
वापस कर रहे हैं। उनकी खीज जायज है। ये सभ्य समाज से काट दिए गए लोग हैं
जबकि इनको जन्म देने वाले उनके माता पिता साधारण हैं। हांलांकि कहने को
तो समाज में बहुत कुछ सुधार हुआ है लेकिन बहुत कुछ होते हुए भी ये वर्ग
आज भी पिछड़ा हुआ है। हमारे देश में इनकी संख्या 5 से 10 के लगभग है।
जानवरों से बदतर जीवन जीने को मजबूर शायद यही समाज ऐसा है जिसे परिवार से
बाजार तक कोई काम नहीं दिया जाता। पद्मा खान की आपबीती भी इससे अलहदा
नहीं है। पद्मा भी उसको उसके ही समाज द्वारा दिया गया नाम है। एक पांच
साल की अबोध बच्ची जब उसे  ी और पुरुष में भेद भी नहीं पता था उसे बताया
गया कि वह सामान्य नहीं है। क्या बीती होगी उस पर.....। उसकी अपनी मां
जिसकी ममता भरी छांव की और समझाइश  की उस समय उसे ज्यादा आवश्यकता थी वही
उससे कटने लगी। वह बाल मन जो अभी यह सोचने के लिए तैयार नहीं था कि उसे
क्या हुआ है। वह भी परिवार में रहना चााहती थी पर अचानक जबरन ही उसे
अनजाने हाथों में सौंप दिया गया। उस क्षण ना मां की ममता बिलखी ना पिता
का प्यार उमड़ा। भेज दिया उसे इस जमाने के अनगिनत थपेड़े सहने के लिए।
लाचार पद्मा रोती रही, चिल्लाती रही मां बाबूजी मुझे नहीं जाना..... पर
समाज के दायरे बड़े ही क्रूर है। वो ऐसी संतान को अपने पास रखकर अपना
मजाक नहीं उड़वाना चाहते थे। सो पद्मा भी इन्हीं परिस्थितियों की भेंट
चढ़ गई। इसमें पद्मा का दोष क्या था। लेकिन परिथितियों के चक्र व उसके
अपनों की बेरुखी ने उसे अब तथाकथित अपने ही वर्ग में पहुंचा दिसा था। कई
दिनों तक वह यही सोचती रही कि शायद उसके मां बाबूजी उसे लेने आएंगे लेकिन
धीरे धीरे वो उम्मीद भी जाती रही। बचपन से ही वह उनके साथ नाचने गाने
जाने लगी, भीख मांगने में गाली देने में अश्लील बातें करने में उसे लाज
आती थी। बीतते समय के साथ परिस्थितियां उसके लिए अनुकूल होती गईं। अब उस
रंग ढंग में वह रच बस गई थी। संक्षिप्त शब्दों में कहें तो जीने के तरीके
सीख गई थी। परन्तु घर की याद उसकी स्मृतियों से धुंधली नहीं हो पाई। बचपन
की स्मृतियों में जाते हुए पद्मा की आंखों में आंसू आ जाते हैं। उसका
कहना है कि माता पिता और भाई बहनों की बहुत याद आती है। उनसे मिलने को मन
व्याकुल रहता है लेकिन घर एक बार छूटा तो छूट ही गया। होली दिवाली
घरवालों से फोन पर बात जरूर हो जाती है। बात करते हैं तो मन उनसे मिलने
के लिए व्याकुल हो उठता है। आंखें सजल हो उठती हैं।
कुछ महीने पहले पिताजी का निधन हो गया और यह खबर मिलने पर वहां जाने के
लिए मन बहुत तड़पा, परिवार का रिश्तेदारों के सामने मजाक बनता है। लरजती
आवाज में वह कहती है। जब तक पिताजी थे तो साल में एक बार मुझसे मिलने आते
थे और उसे साड़ी भेंट कर दुखी मन से वापस लौट जाते थे लेकिन अब यह
सिलसिला भी खत्म हो गया। कभी कभी लगता है कि ये ईश्वर का कैसा इंसाफ है,
ट्रेन में बाजार में चौराहे पर बस भीख मांगना ही जीवन हो गया है। आज उसकी
उम्र सत्ताइस वर्ष है। यूं तो वह अपने समाज के संस्कारों में पूरी तरह से
ढल चुकी है परन्तु आज भी वह समाज की परिधि के बाहर उन रिश्तों के लिए
तरसती है जो उससे निमर्मता से छीन लिए गए। मजबूर बेबस पद्मा बस यही कह
पाई कि हम तो मजबूर हैं दीदी ...। इसलिए ये कर्म करते हैं। वरना कौन
परिवार का सुख भोगना नहीं चाहता। हम दूसरों के बच्चे खिला सकते हैं उन्हे
आशीष दे सकते हैं पर हमारी गोद सूनी ही रह जाती है।

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