रविवार, जून 05, 2011

परित्याक्ता

कोमल वर्मा


खबरदार, जो तुमने मेरे सामने अपनी जुबान खोली...। अपनी रौबिली आवाज में
गरजते हुये हार्दिक ने मुझसे कहा। मैं उनकी आवाज सुन सन्न रह गयी, समझ
नहीं आया मैनें ऐसा क्या कर दिया? लडऩे की हद तक बात को आगे बढ़ाते हुये
मेरी जिन्दगी की तरह ही कमरा भी अस्त व्यस्त सा करते हुये वह कहने लगे कि
आज दो पैसे क्या कमाने लग गयी, अपने आत्मसम्मान का ढिंढोरा पीटने लगी है,
याद रख मैं जब तक जिन्दा हूँ तब तक ही तुम्हारा अस्तित्व और मान सम्मान
है, जिस दिन मैं मर गया न तो लोग तुम्हें अपने अच्छे समय में तो क्या
बुरे वक्त में भी अपनी देहरी पर देखना पसंद नहीं करेंगे। परित्याक्ता
कहलाओगी... परित्याक्ता...।
मैं अपने काम पर जाने के पहले घर के काम निपटाते हुये, भावशून्य सी होकर
हार्दिक को देखती जा रही थी, लगा आंखों के पोर जैसे उसके ताने को आंसू की
शक्ल में बहाकर, मेरे गालों पर मेरे आत्मसम्मान की लालिमा को सजाये रखना
चाहते हैं? आंचल के कोर से उसके ताने को समेटते हुये मैं सोचने लगी कि
मैंने आखिर ऐसा क्या कह दिया जो वह सुबह-सबेरे इतनी बातें मुझे सुना
बैठे। अपनी गुम हुयी पैंन्सिल खोजती बेटी की आवाज सुन कर मन हुआ कि यह
पैंन्सिल खोज कर मैं अपना बचपन फिर लिख लूं, जिससे मेरा वह अतीत वापस लौट
आए जब पापा की डांट खाकर मैं मां का आंचल ओढ़ इस जहान में खुद को
सुरक्षित समझ लेती थी।
उफ् ..., पापा भी तो मां से अक्सर ऐसा ही व्यवहार करते थे, पर उनके चेहरे
पर मैनें कभी सिकन नहीं देखी। तो क्या मैं भी अपने बच्चों की खातिर
तिल-तिल यह अपमान सहती रहूँ? क्या मैं भी अपनी माँ का अक्स बन उनके ही
पदचिन्हों पर चलूँ। क्या मैं मान लूं कि आत्मनिर्भरता का आसमान चुनने और
बुनने के बावजूद मेरे खुद का कोई वजूद कभी अस्तित्व में नहीं आयेगा, बचपन
में पिता, यौवन में पति और जीवन के सांझ में बच्चों के आसरे ही मुझे रहना
होगा? समझ नहीं पा रही हूँ कि आत्मनिर्भर होने के बावजूद मेरे खुद का
वजूद क्यों नहीं है, क्या सभ्य जीवन जीने का मुझे अधिकार नहीं है?
मैं सोचने लगी कि मां की तरह मैं सब कुछ सह लूं तो कल मेरी बेटी को भी
यही सब कुछ सहन करना पड़ेगा? यदि आज मैंने इसका प्रतिकार नहीं किया तो कल
मेरी बेटी भी इसी का हिस्सा हो जाएगी। ... नहीं ऐसे में जीवित नहीं रह
पाऊँगी मैं, आत्मग्लानि के साथ कैसे जिन्दा रह पाउंगी? खुद से ही पूछ
बैठी।
तभी... दरवाजे पर हलचल हुयी, पुष्पाबाई आ गयी थी।
अपने तमाम सवालों की पोटली समेटते हुये मैनें पुष्पाबाई से पूछ लिया, आज
देर कैसे हो गयी?
बीबी जी..., कह कर वह कुछ सोचने लगी।
उसका चेहरा पढ़ मैने कहा क्या सोच रही हो?
अरे बीबी जी मत पूछो, वो बिरजू  है न मेरा घरवाला, मैंने उसे सबक सिखा
दिया, रोज-रोज की चिक-चिक से तंग आ गयी थी मैं, टाइम पे घर का सारा काम
निबटा दूंगी का मुझे भरोसा दिलाते हुये वह आगे कुछ कह पाती।
इससे पहले मैंने पुष्पा की ओर देखते हुये... पूछ लिया, क्या किया तुमने?
...अरे बीवी जी, नलके के नीचे, अपनी आत्मनिर्भरता की तरह बरतन चमकाते
हुये वह कहने लगी कि वो मेरे को रोज दारु पीकर बिना बात के मारता, रोज घर
से बाहर निकाल देता, मुहल्ले वालों के सामने भद्दी-भद्दी गालियां बकता,
आखिर मेरा भी तो कोई आत्मसम्मान है? मैं काम करके पैसे न जोड़ू तो उसके
बच्चों को कौन पालेगा? बीवी जी, पुष्पाबाई ने आगे कहा घर का सारा काम भी
करूँ फिर बच्चों और सारे मुहल्ले वालों के सामने उसकी मार खाऊँ, मेरी ननद
और सास भी कुछ नहीं कहती, क्या मैं जानवर हूँ, चैन से रोटी भी नहीं खाने
देता...।
बर्तनों से भर रही टोकरी के बीच उसकी वेदना और दर्द की आवाज सुस्पष्ट
सुनाई दे रही थी, मुझे ऐसा लग रहा था कि जैसे पुष्पा अपनी नहीं मेरी आप
बीती सुनाने बैठ गई हो?
क्या सारी औरतें यह सब सहन करती हैं जैसे मेरे अनसुने सवालों के बीच
पुष्पा ने झाड़ू उठाई और लगाने लगी पर वह लगातार बोले जा रही थी, लगा
जैसे वह बीते वर्षो में कतरा-कतरा यत्र-तत्र बिखरे अपने आत्मसम्मान को
बटोर लेना चाहती हो?
कचरा बटोरते हुये जैसे लगा आज उसने खुद को जीत लिया हो? आपको पता है बीवी
जी, मैंने आज उसके खिलाफ पुलिस में शिकायत कर दी। पुलिस उसे लेकर गयी,
मुझे नहीं परवाह अपने मांग के सिन्दूर की, जो पति अपनी पत्नी को जानवर
ज्यादा न समझे, भावना की कोई कद्र न करे, अधिकार के बोझ तले जिम्मेदारी
रोज-रोज दम तोड़े वो पति कहलाने लायक कैसे हो सकता है?
आज पुष्पा को क्या हो गया था? कल तक सूजा मुंह लेकर आती पुष्पा का दर्द
अनकहा ही रह जाता था,चेहरा जरुर इसकी चुगली करते थे कि उसके साथ अमानुषिक
व्यवहार हुआ है, पर आज जैसे उसके चेहरे पर दुर्गा की साक्षात् प्रतिकृति
दृष्टव्य हो रही थी।
बीवी जी बच्चों को मैं पाल लूंगी, कम से कम मेरी बेटी तो सुखी रहेगी। अगर
मैं ऐसा नहीं करती तो मेरी बेटियां भी तो मेरा अनुसरण करती?
पुष्पा के इस रौद्र रुप को देख मैं सहम गई, मैंने अपनी बेटी नेहा को अपनी
बाहों में कसकर भींच लिया। सोचने लगी पुष्पा इस दरिन्दगी से  निजात पा भी
जाए पर क्या खुद को दो कुलों की लाज मान गर्व के बीच मुझमें इतनी हिम्मत
है कि कोई कदम उठा सकूं?
बिदायी रस्मों के दरम्यां मुझसे मां ने यही पूछा था। हार्दिक मुझे कब
समझेंगे। क्या इनका अहम् मेरे आत्मसम्मान से ज्यादा है।
मन कर रहा था हार्दिक से अभी बात करूँ, लगा पुष्पा की बातों का मुझ पर
असर हो चला था। इस बीच पुष्पा अपना काम निबटा कर चली गयी थी। पुष्पा का
आत्मसम्मान मेरे मन की गहराई तक उतर गया था। कहीं न कहीं मैं नेेहा को
लेकर परेशान हो उठी थी, हालांकि अभी वह बस पांच वर्ष की ही तो थी?
शाम के सात बज चले थे, हार्दिक के भी आने का समय हो गया था, मैं बच्चों
को पढ़ाकर उठी और मशीन की तरह किचिन में लग गयी लेकिन अभी भी पुष्पा की
बातें रह-रह याद आ रही थी।
जब से मेरी शादी हुई है शायद तब से ही हर क्षण मैं भी तो अपमानित होती
रही हूं। स्कूल में टीचिंग, ट्यूशन, घर एवं पति के बीच पिसती ही तो आयी
हूं। क्या आज मेरे अन्दर का ज्वालामुखी फटने को था? छह साल के वैवाहिक
जीवन मैं उसे कौन सा सुख मिला, यह भीे सोचना पड़ता है। खुद को भूलकर
घर-परिवार को पाला, सारी तनख्वाह पति के हाथों में देने के बावजूद भी
मुझे अपमानित होना पड़ता है? आज चूल्हे की लौ में सोने की तरह मेरा
आत्मसम्मान भी तप रहा था।
हार्दिक से आस करुँ कि वे मुझेे कभी समझें, जिन्दगी भर इस तपस्या में खुद
को मिटा दूँ और क्या मैं नेेहा के लिए यह सजा कबूल कर लूं।
सावित्री... सावित्री... कहाँ हो?
घर में घुसते हुये हार्दिक ने कहा।
पुष्पा द्वारा सुलगाये गये तमाम सवालों को चाय का पानी चूल्हे पर रखने के
बहाने बुझाते हुये मैने सोचा भी नहीं था कि हार्दिक सोफे पर बैठ उल्हाना
दे रहे होंगे, क्या करती रहती हो दिनभर, तुमसे तो एक कप चाय भी समय से
नहीं बन पाती है। मुझे देखते ही उन्होनें कहा जल्दी चाय लाओ
ज...ज..जी. लाती हूं। जैैसे लगा शब्द गले में बंध से गये हों?
उल्टे पैर रसोई में जाकर चाय लाकर सेन्टर टेबिल पर रखते हुये मैंने कहा ये लीजिए।
हाँ ठीक है (चाय की चुस्की लेने के लिये कप उठाते हुये) हार्दिक ने पूछा
तुम्हारी सैलरी कहां है, घर की किश्त जमा करनी है।
जी... वो अलमारी में रख दी है।
मेरे जबाब से झल्लाते हुये उन्होंने कहा, हाँ-हाँ ठीक है। चन्द रुपयों पर
ऐंठ मत दिखलाओ और सुनो कल माँ, बड़़ी जीजी और जीजाजी आ रहे हैं। अपना काम
जल्द खत्म कर, उनको लेने चली जाना ध्यान रहे कोई गलती ना हो। मेरे कपड़े
पर प्रेस हुए की नहीं?
(मैं सोच में डूब गयी)।
सावित्री... सावित्री.. सावित्री ,
जी...जी... क्या हुआ,
ाजकल तुम्हारे कान कहाँ रहते हैं? तुनकते हुये हार्दिक ने पूछा।
जी... अभी तक घर का राशन नहीं आया है?
यह सुन हार्दिक एक झटके से उठ खड़ा हुआ और मेरे मुंह पर एक तमाचा जड़
दिया। इतना काम नहीं होता तुमसे क्या करती हो पूरा दिन। बस खा-पीकर सोना।
तंग आ गया हूँ मैं। पता नहीं किस गंवार से पाला पड़ा है।
मुझे कोई आश्चर्य नहीं हुआ, क्योंकि यह तो रोज का ही काम था, बस उसकी
कड़वी यादों में एक पन्ना और शामिल हो गया। उस रात मुझे  नींद नहीं आयी।
शायद जिन्दगी का एक अहम फैसला जल्द लेना था। जिन्दगी तराजू के दो पलड़ों
में थी या तो आत्मसम्मान या पति...। पर माँ ने कहा था कि में दो कुलों की
लाज हू। पर क्या मेरा अपना कोई जीवन नहीं है, लेकिन माता-पिता की बदनामी,
बुरे संस्कारों की दुहाई...। नहीं मैं नेहा को कमजोर नहीं कर सकती मेरी
नन्हीं नेेहा सूखे पत्तों का सा जीवन नहीं जियेगी।
रोज की तरह सुबह का सूरज चढ़ा, मैंने आज भी शक्ति की आराधना कर, शक्ति
में अपनी अटूट आस्था को प्रतिबिम्बत होते देखा, दूधिया की देरी की वजह से
चाय में हुयी देरी को लेकर हार्दिक का चिल्लाना शुरू हो गया? पर अब मेरे
अन्दर की शक्ति ने मुझे मेरी आत्मग्लानि से बाहर निकाल दिया था? अब मुझे
हार्दिक की आवाज की न परवाह थी ऐर न ही उस आवाज का डर, जो फिछले कई वर्षो
से मुझे डराता रहा था। हार्दिक बिस्तर से उठकर मुझको मारने की मुद्रा में
आये ही थे कि मेरे अन्दर की पुष्पा जो शक्ति बन चली थी ने आगो बढ़ कर
हार्दिक का हाथ वहीं रोक दिया।
अब मैं तुम्हारी पत्नी नहीं, सिर्फ नेहा की माँ हूँ। मैंने अपना सामान
पैक करते हुए हार्दिक से कहा, मैं जा रही हूं। कोई और नौकरानी ढूंढ लेना
जो तुम्हारी मार खाने के साथ तुम्हारा ख्याल भी रखे। अब मुझे परित्याक्ता
कहलाने का कोई अफसोस नहीं। मैं अपनी उम्मीदों पर खरी उतरी पर अफसोस  आप
एक जानवर की हैसियत से ऊपर नहीं उठ पाए। गुडबॉय... हार्दिक। सावित्री ने
नेहा को लिया और अपना सामान उठाकर, बिना पीछे देखे घर की देहरी लांघ,
खुले और अन्नत आकाश में आ गयी थी। आज पुष्पा की तरह वह भी आत्मसम्मान की
लड़ाई जीत चुकी थी। हार्दिक नि:शब्द सावित्री को ओझल होते हुये देखे जा
रहा था।

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