यह कैसा शहर है, न रात, न दोपहर है।
चांद तन्हा है, धूप का भी यही हश्र है।
हर महबूब फिदा नए महबूब पर है।
जिस्म की सीढ़ी से उतरता है रंग सुनहरा,
धूप के टुकड़े से मरहूम जहां आंगन हर है।
आंखों में उमड़ता है दर्द का सैलाब,
और जिस्म पर जख्मों की भरमार है।
भावनाओं का मोल नहीं, रोज होती तार-तार,
अंधेरा है चारों सूं, जुगनूओं का कारोबार है।
- कोमल वर्मा कनक
सुन्दर प्रस्तुति ।।
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