शनिवार, अप्रैल 07, 2012

प्रीत से पोषित हो मन



नवीन है प्रेम मेरा, दिल अधिकार चाहे।
और अब कलियों पर है भंवरे मंडराए।
रस्म नई है धरा की, पर क्षितिज नहीं,
आओ हम गगन-धरा सा मिल जाएं।

चाहा मैंने रच लूं अपने जीवन का गौरव,
रचने में इतिहास, मुझको विश्वास नहीं।
जीवन के शब्द सिमट जाएं पन्नों में,
मुझको तो रही कभी ऐसी आस नहीं।


जब मिलना हो तुमको, मुझसे इस दुनिया में,
सदा करना तुम, सौम्य प्रणय अनुकरण।
फिर रीत का न करना उद्भेदन तुम,
प्रीत से पोषित हो मन, निष्ठा का वरण।


मन की नौका जल पर स्थिर है जब,
क्यूं खिलवाड़ करें हम दोनों लहरों से।
मंजिल पा ही लेंगे इक दिन हम अपनी,
राहें लाख घिरीं हों चाहे पहरों से।

  • कोमल वर्मा कनक


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