मंगलवार, जून 07, 2011

मां क्या चाहती है.....


कोमल वर्मा

सर्वप्रथम मातृ दिवस के इस पावन पर्व पर मैं संसार की सभी माताओं को मोहिनी परिवार की ओर से शत्-शत् नमन करती हूं। संसार में शायद ऐसा कोई व्यक्ति नहीं होगा जो मां के आशीर्वाद के बगैर सफलता की मंजिल की ओर अग्रसर हुआ होगा। मां... जो बालक की कल्पना के चित्रों में रंग भरकर उसे साकार करती है। सच में मां के स्नेह जैसा कुछ और नहीं होता। मां एक अहसास एक विश्वास है। गर्भ में अबोली, कोमल आहट से लेकर नवजात के मासूम आगमन तक, मीठी किलकारियों से लेकर कठोर असहनीय बोलों तक, स्पर्श के आंचल तक मां मातृत्व की अपनी कितनी परिभाषाएं रचती है। जो हमारी यादों को अपने मन में ताउम्र संजोए रखती है जो हमारे बाल्यावस्था की नन्ही उतरन को अपनी पूंजी समझती है हमारे बीमार होते ही अपने चिंतायुक्त पोरों की गर्म सहलाहट के साथ लोरी गुनगुना देती है। वो महकते भावुक लम्हे भुलाए से भी नहीं भूलते। यहां हम एक ऐसी ही मां की बात कर रहे हैं। देवकी मां... कहते-कहते गांव के छोटे-छोटे बच्चे उससे लटक जाते थे। देवकी मां कभी उनके लिए टाफियां लाती तो कभी बिस्किट। देवकी मां कुएं के पास वाले मकान में अकेली रहती थी। कहने को तो उसके चार बेटियां, दो बेटे थे। पर बहुत कम ही लोगों ने उन्हें देवकी अम्मा के पास देखा था। पिछली बार पिता की मृत्यु के समय क्रियाकर्म को एक दिन के लिए आए थे। देवकी अम्मा अब बूढ़ी हो चली आंखों से ज्यादा दिखता नहीं, अपनी हारी, बीमारी, नाराजगी, प्यार सब बाबा की फोटो से कह देती थी सभी की तरह वह भी यही सोचती थी कि उसके बच्चे अब उसको फूंकने ही आएंगे। जाने कितने ही मौसम उसने औलाद पर आंसू बहा के गुजार दिया। देवकी अम्मा के दोनों बेटे दिल्ली में रहते हैं परंतु एकल परिवार के चलते दोनों के बीच काफी दूरियां थीं। बेटियां सभी अच्छे घर में ब्याही थीं। गर्मियों की छुट्टियां हुईं बच्चों को वन-डे पिकनिक पर ले जाने के कार्यक्रम के तहत सभी ने मिलकर कार्यक्रम बनाया कि गांव जाया जाए और फिर मदर्स डे भी था। जो इतने सालों में पहली बार याद रहा। वर्ष में एक बार प्यार जताने 21 लोगों का झुण्ड निकल पड़ा गांव की ओर। सब खाने पीने का सामान साथ लेकर पता नहीं वहां कुछ होगा भी कि नहीं, क्या बनाती होगी, हाइजीन नहीं होगा। साबुन वगैरह भी रख लिया। गांव पहुंचे देवकी अम्मा बेबसी और एकांकीपन को सहेजे खाट पर बैठी थी। एकाएक झुण्ड घर के आंगन में देखकर वह दंग रह गई। आंखों से भले ही कम दिखता हो पर मां तो बच्चों की हर आहट भांप लेती है। बड़बड़ाहट में बोली तुम सब एक साथ पर मैं तो भी जिंदा हूं। तभी उनमें से एक नन्हा बालक बोला नानी हम मदर्स-डे मनाने आए हैं। देवकी अम्मा बोली ये कौन सा त्यौहार है जो दस साल में एक बार आता है। खैर... अम्मा की रसोई में सब सामान रखा गया। हालांकि अम्मा की बहू बेटियों को उनकी रसोई कबूतर खाने से कम न लगी पर कुछ घंटे ही तो बिताना था। बड़ा बेटा बोला और बता मां क्या हालचाल है। बेटा अकेली हूं... मां बोली और अकेलापन सबसे बड़ी बीमारी होता है। चल छोड़ मां हम तेरे खाने के लिए बहुत सी चीज लाए हैं और यह कहते हैं उसने आधुनिक संसार की सारे व्यंजन परोस दिए। पर देवकी अम्मा ने तो उनका कभी नाम भी न सुना था। देखकर ही हाथ जोड़ दिए तुम लोग खाओ मैंने तो अभी दाल-भात खाया है। इतना सब साथ लाए थे पर ये ना पता था मां क्या खाती है पर मां जो बच्चों के मन की थाह लेकर हर बेस्वाद चीज को स्वादिष्ट बना देती थी। अपनी पसंद मां का क्या है जो रोज खाती होगी खा लेगी। पर क्या दादी और नानी के रूप में उसकी ममत्व बच्चों को दुलराना चाहता था पर हाइजीन न होने के कारण बच्चे इसके पास तक न आए। बच्चे क्या बड़ों ने भी इसे छुआ तक नहीं। देवकी अम्मा ने पूछा- कितने दिन रुकोगे बेटा। बस शाम को चले जाएंगे। तुझे भी परेशानी होगी ना, तू आराम से सोना। तू बूढ़ी हो चली है। देवकी अम्मा ने मन में सोचा हां बेटा परेशानी तो होती है जो मां बड़े जतन से बचें को पालती है वह बच्चे चन्द मिनटों के लिए उसका इतना ख्याल रखें। सचमुच कितना धैर्य होता है मां के भीतर। कल जिन्हें वह सिखाया समझाया करती थी आज वही उसे सिखलाते हैं कि क्या कहें क्या ना करें। मातृत्व को इस धरती पर देवन्त का प्रतिरूप माना गया है चलो कुछ पल के लिए ही सही उसके बच्चों को इस भगवान की याद तो आई। मां बूढ़ी हो चली है ठीक भी है। बच्चों की नजरों में मां का बुढ़ापा नजर आ ही जाता है पर मां के ही नेत्र हैं जो बच्चों को बूढ़ा नहीं होने देते। सभी कुछ घण्टों के बाद सावत्री अम्मा फिर अकेली थी।
सब जा चुके थे लगता था आज फिर भूखे सोना पड़ेगा। क्यूंकि मां क्या खाती है क्या चाहती है उसके भोले बच्चे कभी समझ ही नहीं पाएंगे। मां की पीड़ा, उसका
असहायपन क्या किसी को दिखाई नहीं दिया। कुमकुम की रंगोली सी पावन मां
उन्हें अनहाइजीन लगी। जिसकी देह से अमृतपान कर उन्होंने जीना आरंभ किया, उसको छूना गवारा न समझा उसका स्पर्श, उनका अहसास, निश्छल प्रेम सब बेकार जो इतने सालों तक खोजकर न लेने वाले बच्चों पर अनायास ही उमड़ पड़ा। उसका चन्द्रमा सा शीतल धैर्य तब भी न डिगा। वास्तव में मां शस्दातीता है, वर्णनों से परे उसके हृदय से सर्दव सुकल्याण का एक शीतल जल थिरकता है- मेरी संतान यशस्वी हो, चिरायु हो, संस्कारी हो, सफल हो और वैभवशाली हो। परंतु वही संतान बड़े होकर यह भूल जाती है कि मां क्या चाहती है। मां की अप्रतिम सुगंध हमारे रोम-रोम से प्रस्फुटित होती है हमारी सांस उसकी ऋणी है। यह वही मां है जिसको अपनी सुख-सुविधाओं और वैभवपूर्ण जीवनशैली के चलते हम अकेला छोड़ देते हैं।

कितना सुखद, कितना पवित्र
निष्पाप है ये सम्बोधन,
बस एक मां के होने से,
बन जाता है ये जीवन
मां तू कुछ कहती नहीं,
कितना सहती रहती है।
तू लिप्त है मुझमें अन्तरतम्
फिर क्यूं सिसकती रहती है।
मैं तेरी देह की माटी हूं,
फिर भी समझ नहीं पाती हूँ
कि मां क्या चाहती है...।

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