मंगलवार, जून 07, 2011

यादों का संदूक......


कोमल वर्मा

फुरसत के पलों में जब मेरा मन बार बार अतीत के झरोखो से झांकता है तो, फिर से वो कोमल बचपन याद आता है। गर्मी की छु़िट़टयों का बचपन से कुछ ऐसा ही नाता है। दोस्तो के साथ की जाने वाली शरारते, लूडो, कैरम और अन्त्याक्षरी, बर्फ की ठंडी ठंडी चुस्की और ना जाने कितनी खूबसूरत यादें जुडी होती है इस मौसम से। यदि हम अपने गर्मी के दिन याद करें तो तो दिल को एक अलग तरह का सूकून मिलता है। स्नेह और अपनत्व की ठंडी छांव धूप की चिलचिलाती तपिश को भी सुहाना बना देती थी। लेकिन आज जीवनशैली इतनी बदल चुकी है कि तमाम सुख सुविधाओं के बाबजूद आज के बच्चों के पास वो जीवन्त माहीैल नहीं है। जहां वे वेफिक्री से गर्मी की छुिट्टयों का लुफत उठा सकें।
लेकिन रचना की बात बिल्कुल उलट है। बचपन में ही नानी का स्वर्गवास हो जाने के कारण रचना को छुट्टियों के लिए  वो आंगन कम ही  मिल पाया, शायद उसकी माँ को भी इसकी कमी खलती थी।  पांच भाई-बहनो में से चार की शादी हो चुकी हैै। काफी पहले पापा का भी स्वर्गवास हो गया। यूं तो उनके जाने की कोई उम्र ना थी पर ईश्वर के सामने किसकी चलती है। समय के साथ माँ ने भी सब्र कर ही लिया था। आरंभ से ही रचना माँ के सबसे ज्यादा करीब थी। इसलिए बाहर जॉब होने के बाबजूद  दस दिन में एक बार माँ से मिलने आ ही जाती थी। भाभी भी ऐसी न थी कि जिनका साथ माँ को भवनात्मक मजबूती दे सके । जरा जरा सी बात पर माँ से किटकिट करने लगती थी। माँ बस इतना कहती बिटिया सब ठीक है ये सब तो कभी कभी होता है, पर ये तो वो भी अच्छी तरह से जानती थी कि माँ क्या छिपाती है ना फोन पर ना सामने उसने कभी भी इस बात का एहसास ना हाने दिया कि वो कितनी अकेली है। मां जो बच्चों की आहट से ही पहचान लेती है कि कब उसे किस वस्तु की आवश्यकता है, उसे कब भूख लगती है और कब डर...। पर वे बच्चे ही हैं जब तक उन्हें मां के आंचल की जरूरत होती है तब तक पकड़े रहते हैं जैसे ही पंख लगते हैं उड़ जाते हैं मां को छोड़कर बिना ये सोचे कि कभी तो उन्हें भी हमारी जरूरत होगी। रचना सब समझती पर मां की जिद की वजह से वो उन्हें अपने साथ भी तो नहीं ले जा पा रही थी। पता नहीं ऐसा क्या बांधे हुए था उन्हें। बेटा तो अपने निजी जीवन में इतना व्यस्त हो गया कि मां की कराह भी उसे सुनाई नहीं देती है और मां है कि उनकी सांसों की आवाज से उनकी बिमारी पहचान लेती है। सच में पूत कपूत हो सकता है पर माता कुमाता नहीं। फिर भी लड़के-लड़की में भेद किया जाता है। खैर मां तो मां है एक सुखद एहसास जिसका नाम लेने से सारी पीड़ाएं मिट जाती हैं। पाप के स्वर्गवास के बाद मां का समय के अतिरिक्त किसी से ढांढस नहीं बंधाया। बचपन से ही रचना देखती आ रही थी कि पापा के जाने के बाद से ही मां हमेशा काम में व्यस्त रहती थी। बड़े से बड़ा भारी से भारी काम भी उन्हें थकाता नहीं था। हफ्ते में कम से कम दो या तीन बार तो दुछत्ती पर रखा संदूक निकालती फिर उसमें रखी नेफ्थलीन की गंध से सने कपड़ों और कुछ पुरानी चीजों को एक-एक कर सहेजती फिर तह लगा के रख देती, मानो वह शिद्धत के साथ कुछ ढूंढ रही हो। और ना मिल पाने के अफसोस के साथ वो उसे वापस रख देती थी। तब लगता था कि मां को ज्यादा काम करने की आदत है इसलिए उठा-धराई करती रहती है, पर ये तो उनका आदतन कार्य था। यह भी तय है कि बहुत ज्यादा ऊंचाई पर रखा होने के कारण उस संदूक को नहीं छेड़ता था। पर फिर भी...। जाने क्या ढूंढती थी मां उसमें। रचना के बचपन से अब तक यह दौर चला आ रहा था पर अब की बार जब रचना ने मां से बेतहाशा साथ चलने की जिद की तो मां रुआंसी हो गई। बात आई-गई हो गई। दोपहर को जब इसी संदूक के साथ मां के आंसू देखे तो रचना भी दंग रह गई, जैसे कि माँ आंसुओ के साथ पिताजी से बातें करने की कोशिश कर रही हो । उफ्फ... कहीं मां पिताजी की यादों में तो...। इसका मतलब वो तब से अब तक अकेली है। हमें सुकून की नींद देकर खुद आंसुओं के साथ सोती रही। मां... कभी हमें अपनी उदासी का अहसास नहीं होने दिया। कितनी मजबूर, कितनी बेबस, बस तन्हाई और यादों के साथ खुद को समेटती रही। मां तूने कभी बताया नहीं । क्या मानव संवेदनाएं निर्जीव हो चली हैं जो एक मधुर संबंध भी महज औपचारिकता का मोहताज होकर रह गया है। एक केवल भोजन से ही जिंदगी नहीं चलती। भावनाओं और अपनत्व की भी आवश्यकता होती है, बच्चों को संभालती आंसू बहाती मां आज उन्हीं बच्चों के बड़े हो जाने पर उनके व्यक्तिगत जीवन से निकाल बाहर फेंक दी गई। आज वह अपने एकांकी जीवन की तिल-तिल अपनी आंखों के सामने जलता देख रही है और इंतजार कर रही है अपने अंत का। आज भी रचना के लाख कहने पर भी उस घर और उस संदूक को छोड़कर जाने के लिए तैयार नहीं। जहां हम जिंदा लोगों के साथ, अपने संबंधों की कन्नी काटते हैं। वहीं मां दिवंगत रिश्ते को भी जीवित रखे हुए। क्या सचमुच परिवार के छोटे-छोटे दुखों को नजरअंदाज करते हम क्या सिर्फ आत्ममुग्धता के शिकार हैं... भावनाओं के कच्चे-पक्के धागों से बांधे खट्टे-मीठे रिश्ते आत्ममुग्ध होने के सिवा कुछ नहीं।

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