रविवार, जून 26, 2011

प्रेम...


जिसके साथ का अहसास हो, साथ फिर भी साथ है।
यह जग मिले पुरूषार्थ से, और प्रेम तो नि:स्वार्थ है।

प्रेम में यदि काम है तब प्रेम कैसे कहें हम इसको,
प्रेम तो रूह में बसता है, अहसास सिर्फ अहसास है।

हो जाये जब प्रेम, भान यदि न हो पाये उसको,
आंकना और परखना, सब प्रेम का अपमान है।

कुछ पाया कुछ खो दिया, मोह में बस संसार के,
जो बांंट दे अपना जिगर, यह त्याग ही तो प्यार है।

तृप्ति में जब तृष्णा न हों तो प्रेम हो जाता है तृप्त,
बहे संग तृष्णा प्रेम के, कैसे न कहें यह व्यापार है।


  • - कोमल वर्मा

5 टिप्‍पणियां:

  1. मनोभावों को बेहद खूबसूरती से पिरोया है आपने....... हार्दिक बधाई।

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  2. डॉ. (सुश्री) शरद सिंह जी,
    आपकी प्रतिक्रिया पढकर बहुत अच्छा लगा.आपकी प्रतिक्रियाओं की आगे भी प्रतीक्षा रहेगी.
    धन्यवाद.

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  3. बहुत ही सुंदर .... एक एक पंक्तियों ने मन को छू लिया ...

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  4. पहली बार पढ़ रहा हूँ आपको और भविष्य में भी पढना चाहूँगा सो आपका फालोवर बन रहा हूँ ! शुभकामनायें

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