रविवार, जुलाई 03, 2011

जीवन ढूँढ़ा करती हूँ



  •  कोमल वर्मा


चंचल हिरनी सी मैं जब,
कलियों से खेला करती थी।
तेरी खुशबू यादों की धूप बनी,
जिन किरणों का मैं पीछा करती थी।

कुछ होश नहीं था जीने का,
क्यूंकि जीने का ज्ञान न था।
मदमस्त जिन्दगी थी लेकिन
तब जीवन का अनुमान न था।

कुछ भौतिकता, कुछ मौलिकता,
और मुझको कुछ अपनापन मार गया।
फूलों की तुरपन में लेकिन,
हाथों में चुभ एक खार गया।

मुश्किल से उसे निकाला था,
जब सपनों को सच में ढाला था।
कब टहनी मेरे सपनों की टूट गयी,
और हकीकत मुझसे रूठ गयी।

अब और भटकती रहती हूँ,
जीवन को ढूँढा करती हूँ।
मौसम बदलें, मगर तकदीर नहीं,
ऐसे में कुछ पाने की उम्मीद नहीं।

क्या अब जीना सीख गयी मैं,
या फिर अब जीवन का ज्ञान हुआ?

2 टिप्‍पणियां:

  1. क्या अब जीना सीख गयी मैं,
    या फिर अब जीवन का ज्ञान हुआ।

    नहीं यह तो भूलने वाली बात हो गई |

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  2. आप बहुत सुंदर लिखती हैं. भाव मन से उपजे मगर ये खूबसूरत बिम्ब सिर्फ आपके खजाने में ही हैं

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