मंगलवार, जून 07, 2011

साथ की जिद् जुटाए बैठे है



फीकी रही जिनकी तड़प, जहां के लिए,
यादों को उनकी हम आंखों में सजाए बैठे हैं।

कसूर इतना है कि वो समझे न मुस्कुराना मेरा,
या आदत है उनकी, वो खुद को छिपाए बैठे हैं।
         

         अलग है राह मगर, मंजिलों की सोच एक,
         जो जख्म पुराने हम दिल से लगाए बैठे हंै।

         अक्सर यह ही, मन को दर्द देते रहते हैं,
         ऐसे में वो क्यूं साथ की जिद् जुटाए  बैठे है।
         

   जफा के दौर में मुमकिन नहीं वफा उम्मीद कोई,
   कैसे यकीन करुं, वो, जो नजरों में बसाए बैठे है।

   शेर है, ना शायरी ना काफिए का मिलन यह,
  ऐसी ही इक गजल को फिर से आजमाएं बैठे है  ।                 

- कोमल वर्मा

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